नई दिल्ली:प्रशांत किशोर ने ख़ुद कभी कोई चुनाव नहीं लड़ा है. उनकी अपनी कोई विचारधारा नहीं है. वो कभी नरेंद्र मोदी के साथ रहते हैं तो कभी राहुल गांधी के साथ. इसका मतलब प्रशांत किशोर में ख़ुद एक ‘कंट्राडिक्शन’ है. वो ‘अवसरवाद’ की राजनीति कर रहे हैं.अगर प्रशांत किशोर को लगता है कि वो किसी भी दाल में छोंक बन जाएंगे, तो उन्हें ये समझना होगा कि कभी कभी दाल ख़राब भी हो सकती है.कांग्रेस देश की सबसे पुरानी राजनीतिक पार्टी है. अगर कांग्रेस में इतना दिवालियापन आ गया है कि उन्हें एक चुनावी रणनीतिकार की ज़रूरत पड़ रही है, तो ये बहुत बड़ा दुर्भाग्य है कांग्रेस के लिए.प्रशांत किशोर ने गोवा में ममता बनर्जी को एक झुनझुना पकड़ाया कि वहाँ चुनाव लड़ने के बाद उनकी राष्ट्रीय स्वीकार्यता बढ़ेगी. गोवा का वोटर प्रोफाइल टीएमसी को सूट करता है.लेकिन टीएमसी का गोवा में जो हाल हुआ, इस एक कदम से ममता बनर्जी की राष्ट्रीय स्तर की नेता बनने के सपने को झटका ज़रूर लगा. ये सब एक मार्केटिंग स्ट्रैटेजी थी.
नरेंद्र मोदी को 2014 में प्रशांत किशोर की ज़रूरत नहीं थी. ममता बनर्जी को 2021 में प्रशांत किशोर की ज़रूरत नहीं थी. तभी उन्होंने एक कंसलटेंट की भूमिका में रखा, पार्टी में नहीं ले लिया. पार्टी की ‘ओनरशिप ट्रांसफर’ नहीं की.लेकिन गोवा की हार से उन्होंने एक तरह से बाद में पल्ला ही झाड़ लिया. ममता बनर्जी और उनके पार्टी काडर को इससे बहुत झटका लगा.
उसी तरह से 2017 का ‘यूपी के लड़के’ कैंपेन, अपने आप में कांग्रेस के लिए बुरा अनुभव था. ये बातें भले ही कांग्रेस आज भूल रही है लेकिन पार्टी को ये तो याद रखना चाहिए प्रशांत किशोर कोई ‘जादू की छड़ी’ नहीं हैं जिसे आप अपना सीईओ बना लें, तो सब ठीक हो जाएगा. गांधी उन्हें मालिक की तरह अपनी पार्टी ‘आउटसोर्स’ कर सकते हैं, लेकिन राजनीति आउटसोर्स करके नहीं चलती. नेता ‘आउटसोर्स’ नहीं हो सकते.
कांग्रेस के कई नेता दबी ज़बान से कह रहे हैं, आप एक चुनावी रणनीतिकार या मार्केटिंग स्ट्रेजिस्ट रखना चाहते तो आप रखें – लेकिन पूरी दुकान किसी और को चलाने दे देंगे – तो कहीं आगे चल कर दुकान ही ना बंद हो जाए.
2014 में केवल प्रशांत किशोर ने ही मोदी पर दांव नहीं लगाया, कई और पूंजीपतियों ने दांव लगाया, उस समय देश में जो माहौल था उसमें मोदी की जीत सुनिश्चित थी.
उसी तरह से 2021 में पश्चिम बंगाल की सड़कों पर जो माहौल था वो ममता के पक्ष में ही था. लेकिन जब जीत जाए तो छोंक ऊपर आ ही जाता है. उस समय नेता भी कहते हैं, घी गिरा खिचड़ी में.”
वरिष्ठ पत्रकार स्वाति चतुर्वेदी का विश्लेषण
अगर कांग्रेस में इतना दिवालियापन आ गया है कि उसे एक चुनावी रणनीतिकार की ज़रूरत पड़ रही है तो ये बहुत बड़ा दुर्भाग्य है
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