दिल्ली देश का दिल है और देश के दिल का भी एक दिल है जो बसता है पुरानी दिल्ली यानी मुगलों के शहर शाहजहानाबाद में दिल्ली की इस खूबसूरत जामा मस्जिद के बारे में बात करते हैं जिसके बारे में आपने शायद ही पहले कभी नहीं सुना होगा।जामा मस्जिद का निर्माण मुगल बादशाह शाहजहाँ के कहने पर सन 1644 से 1656 के बीच करवाया गया था उस समय मस्जिद को बनाने में लगभग 10 करोड़ रुपए का खर्च आया था उस समय इस मस्जिद को बनवाने में 5 हजार श्रमिक लगे थे उज्बेकिस्तान के एक इमाम ने जामा मस्जिद का उद्घाटन किया था जो उस दौर में दिल्ली सिर्फ इनॉगरेशन करने के लिए आए हुए थे।एक वह भी दौर गुजरा है जब अंग्रेज़ों ने जामा मस्जिद में नमाज़ पर लगा दी थी रोक! सन 1857 की लड़ाई के बाद विजय हुए ब्रिटिश शासकों ने इस जामा मस्जिद पर कब्जा कर लिया था लेकिन जनता के विद्रोह की वजह से उन्हें अपना फैसला बदलना पड़ा और इस तरह संरचना का नुकसान होने से बच गया था।लाल पत्थरों से तामीर की गई इस बुलंद मस्जिद की एक पुरानी फोटो को एकटक देखने पर इतिहास का वह दौर आंखों के सामने उभरने लगता है इस एतिहासिक मस्जिद ने मुगल सल्तनत की बुलंदी को भी देखा है घोड़ों की टापों की आवाज़ को भी झेला है बदकिस्मती का दौर भी बीत गया और फिर यहां रवानी लौटी लेकिन वह दौर जिसने इस मस्जिद को बनाया मानों इसकी दीवारें आज भी उसे शिद्दत से याद कर रही हो इस फोटो को देख कर तो एसा ही लगता है जब मुगल बादशाह शाहजहां का दौर चल रहा था और मुगलिया सल्तनत अपने शिखर पर थी तब मस्जिद का शुभारंभ करने पर सब से पहले इमाम सैयद अब्दुल गफ़ूर शाह बुखारी को चुना गया जो उज्बेकिस्तान के बुखारा से खासतौर से इस मस्जिद कि इमामत के लिए बुलाए गए थे तब से लेकर आज तक इसी परिवार की पीढ़ियां दर पीढ़ियां इस मस्जिद में इमाम का पद संभालती रही हैं इस मस्ज़िद के नाम 1857 में मुगिलया दौर के अंत तक शाही मस्जिद का खिताब रहा है
1857 से पहले अंग्रेज़ों ने जामा मस्जिद की मरम्मत और जीर्णोद्धार का काम भी किया था यहां सामाजिक और राजनीतिक चर्चाएं हुआ करती थीं लेकिन 1857 की क्रांति ने यहां सब कुछ बदल रख दिया था 1857 की क्रांति को लेकर अंग्रेजों का मानना था कि क्रांति कि ज्वाला को पूरी तरह से अंग्रेजों के खिलाफ मुस्लिमों ने ही भड़काया है और इसकी साज़िश शहर की मस्ज़िदों में ही लिखी गयी थी।मुसलमानों से खिन्न होकर अंग्रेजों। के कई मस्ज़िदों को शहीद भी किया बाकी बची मस्जिदों में क्रान्ति कि सभा और नमाज़ पर प्रतिबंध लगा दिया गया था इस मस्जिद से कुछ ही दूरी पर खूनी दरवाज़ा भी है जहां अग्रेजो द्वारा मुगल सल्तनत के बचे हुए वारिसों को गोली मार दी गई थी एसी ही कई कहानियों पड़ावों मुसीबतो दुश्वारीयो से गुज़री इस मस्जिद के इतिहास में अनगिनत बहुत सारे पन्ने हैं जो कई अनसुने किस्से लेकर बैठे हैं।सन 1857 मे अंग्रेज़ो ने यहाँ क़त्ले आम किया और सिर्फ़ एक मोहल्ले कूचा चिलान में 1400 लोग मार डाले गये थे 1857 के ब्रिटिश सैनिक एडवर्ड विबार्ड ने अपने चाचा गॉर्डन के लिखे एक पत्र में लिखा है कि मैंने इससे पहले बहुत भयावह दृश्य देखे हैं लेकिन मैंने जो दिल्ली के जामा मस्जिद क्षेत्र में देखा है, मैं ईश्वर से प्रार्थना करता हूँ कि वो मुझे ऐसा दृश्य फिर कभी न दिखाए।
औरतों को तो बख़्श दिया गया लेकिन उनके पतियों और बेटों को मारे जाने के बाद उनकी चीख़ें अभी भी मेरे कानों में गूँज रही हैं ईश्वर जानता है कि उन लोगों के प्रति मेरे दिल में कोई रहम नहीं था लेकिन जब मेरी आँखों के सामने बुज़ुर्ग लोगों को इकट्ठा करके गोली मारी गई मुझ पर उसका बुरा असर पड़ा
इस संघर्ष के बारे में एक महत्वपूर्ण सच्चाई यह भी है कि इसका नेतृत्व #नाना_साहिब, #बहादुर_शाह_जफर, मौलवी अहमद शाह, तांत्या टोपे, खान बहादुर खान, रानी लक्ष्मीबाई, हजरत महल, अजीमुल्ला खान, और फिरोजशाह जैसे नेताओं ने संयुक्त रूप से किया था जो विभिन्न धर्मों के थे यह एक मुक्ति संग्राम था जिसमें मौलवी पंडित ग्रंथी मजदूर जमींदार किसान व्यापारी महिलाएं, छात्र और विभिन्न जातियों पंथों और क्षेत्रों के लोगों ने गोरे अंग्रेजों के अमानवीय शासन के खिलाफ विद्रोह किया था।
ऐतिहासिक जामा मस्जिद की कहानी
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