ब्लूमबर्ग की एक रिपोर्ट आई है कि अंतरराष्ट्रीय दबाव के बावज़ूद, भारत की पब्लिक और प्राइवेट रिफाइनरियाँ रूस से सस्ते कच्चे तेल के आयात को लगातार बढ़ाये जा रही हैं। 2021 में जो शिपमेंट हुआ था, उसके मुक़ाबले, इस साल 20 प्रतिशत अधिक है। पुतिन तेल के खेल में लग गये हैं। तेल देखिये-तेल की घार देखिये। मोदी का ढोल बजता रहेगा। ढोल बर्लिन के ब्रांडेनबुर्ग गेट पर बजे, या कोपेनहेगन में वो खु़द थाप लगायें, ये सारे टोटके अब पुराने पड़ चुके हैं।
पुष्परंजन
नार्डिक देशों से हमारे संबंध कभी-कभार खटास वाले भी रहे हैं। मीठा तो अब जाकर होने लगा है। डेनमार्क की प्रधानमंत्री मेहटे फ्रेडरिक्शन स्वयं कोपेनहेगन एयरपोर्ट पर जाकर पीएम मोदी की आगवानी करें, तो इसे मीठा कहेंगे। अप्रैल 1987 के कालखंड को याद कीजिए, तो भारत से स्वीडेन का संबंध कड़वा ही था। उस साल 16 अप्रैल को स्वीडिश रेडियो ने 84 लाख डॉलर वाली बोफोर्स दलाली की ख़बर ब्रेक की थी, जिससे भारतीय राजनीति में भूचाल आ गया था। तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांघी सवालों के घेरे में थे। 5 फरवरी 2004 को दिल्ली हाईकोर्ट द्वारा आरोप मुक्त होने के बावजूद, बोफोर्स का भूत दशकों कांग्रेस का पीछा करता रहा।
1987 से मई 2014 तक स्वीडेन से भारत के कूटनीतिक संबंध सहज नहीं हो सके। जनवरी 2012 में नार्वे में एक भारतीय दंपत्ति के बच्चे की कस्टडी को लेकर विवाद गहराया था, जिससे नार्डिक देशों से संबंधों में ख़लिश पैदा हुई थी। उससे पहले एक और घटना 1995 में। उस साल पश्चिम बंगाल के पुरूलिया में डेनिश नागरिक नील्स होक उर्फ़ किम डेवी ने हथियार गिराये थे। दिसंबर 2016 में उसके प्रत्यर्पण को लेकर भारत ने नोटिस भेजा, और मामले को ठंडे बस्ते में डाल दिया गया। नार्डिक-भारत कूटनीति की दिशा उसके बाद से बदलने लगी।
17 अप्रैल 2018 को स्टॉकहोम में पहला भारत-नॉर्डिक शिखर सम्मेलन आहूत हुआ। माज़ी में जो कुछ कड़वा था, उसे किया थू-थू, अब मीठा गब-गब खाने के प्रयास आरंभ हुए। उस शिखर सम्मेलन में आर्थिक उन्नति, नवाचार, विश्व सुरक्षा और जलवायु संरक्षण के क्षेत्र में सहयोग के संकल्प किये गये। कोपेनहेगन स्थित भारतीय दूतावास ने जानकारी दी कि 2016 में भारत-डेनमार्क व्यापार 2 अरब 80 करोड़ डॉलर था, जो 78 फीसद बढ़कर 2021 में 3 अरब 60 करोड़ डॉलर पर पहुंच गया। मगर, नार्वे, फिनलैंड, स्वीडेन, और आइसलैंड जैसे चार अन्य नार्डिक देशों से उभयपक्षीय व्यापार की यही गति रही है, ऐसा नहीं लगता। 2018 तक वित्त मंत्रालय की जानिब से जो डेटा उपलब्ध मिले, उसके अनुसार यूरोप के जिन 20 देशों से भारत का व्यापार हो रहा है, उसमें स्वीडेन नौंवे, फिनलैंड 10वें, डेनमार्क 12वें, और नार्वे 14वें स्थान पर दिखे। 2018 तक नार्डिक देशों से कुल जमा 6 अरब डॉलर का व्यापार हुआ है। अब चार वर्षों में ‘चूहा‘ कितना मोटा हुआ है, विदेश मंत्रालय को अद्यतन जानकारी देनी चाहिए।
2018 में वित्त मंत्रालय के डाटा बता रहे थे कि 170 स्वीडिश ज्वाइंट वेंचर भारत में कार्यशील हैं। पांच दिन पहले पीएम मोदी की नार्डिक यात्रा के समय जो सूचनाएं दी गईं उसके अनुसार, ‘फिनलैंड की सौ कंपनियां और उतनी ही नार्वे की कंपनियां भारत में साझा सहकार कर रही हैं। क्या स्वीडेन की 170 कंपनियां 2022 में भी भारत में सक्रिय हैं? कुछ स्पष्ट नहीं हो रहा है। 2022 में जानकारी दी गई कि भारत की 70 कंपनियां नार्डिक देशों में कारोबार कर रही हैं। चार साल पहले इतनी ही भारतीय कंपनिया नार्डिक देशों में थीं। सरकार की तरफ़ से कोई बताये कि नार्डिक देशों से व्यापारिक सहकार विगत चार वर्षों में कितना आगे बढ़ा है? नहीं बढ़ा, तो उसका ठीकरा फोड़ने के लिए कोरोना है।
भारत ने 2015 में हुए पैरिस जलवायु सम्मेलन में संकल्प किया था कि 2022 तक अक्षय ऊर्जा की क्षमता 175 गीगावाट तक बढ़ा लेंगे। यही अहद 2018 में पहला भारत-नार्डिक सम्मेलन में पीएम मोदी ने किया था। तब पीएम मोदी ने बताया था कि हम 2022 तक सौर ऊर्जा से 100 गीगावाट, पवन ऊर्जा से 60 गीगावाट, बायोएनर्जी से 10 गीगावाट और स्मॉल हाइड्रो से पांच गीगावाट विद्युत पैदा कर लेंगे। मगर, ज़मीन पर क्या स्थिति है, उसकी वास्तविकता नवीन व नवीकरणीय ऊर्जा मंत्रालय द्वारा 12 अगस्त 2021 को जारी रिपोर्ट से स्पष्ट हो जाता है। सरकार ने स्वीकार किया कि हम इस समय तक केवल 100 गीगावाट का लक्ष्य पूरा कर पाये हैं। 2022 तक बाक़ी 75 गीगावाट का लक्ष्य यदि हम प्राप्त कर चुके होते, तो संभवत़ः बिद्युत संकट को कम करने मेें इससे मदद मिलती।
सौर ऊर्जा के वास्ते 30 नवंबर 2015 को इंटरनेशनल सोलर अलायंस (आईएसए)हुआ था। ‘आईएसए‘ पर हस्ताक्षर करने वाले 75 देशों में भारत भी है। नारा दिया गया, ‘वन सन-वन वर्ल्ड-वन ग्रिड।‘ यह सब नारे वेबीनार तक सिमट कर रह गए हैं। मैक्रों और मोदी के नेतृत्व में ‘आईएसए‘ के बड़े-बड़े लक्ष्य निर्धारित किये गये। मोदी ने कहा था, 2030 तक ‘आईएसए‘ के कोष में एक हज़ार अरब डॉलर की राशि जुटाकर सौर ऊर्जा के भंडारण से लेकर वितरण तक का काम विश्व भर में करेंगे। आईएसए की वेबसाइट से समझ नहीं पायेंगे, हम इस महत्वाकांक्षी परियोजना के मार्ग में कहां खड़े हैं?
जो बात ज़ेरे बहस होनी चाहिए, वह यह कि मोदी की इस तीन दिवसीय यात्रा से हासिल क्या हुआ है? भारतीय पीएम का पहला पड़ाव बर्लिन था। 14 उभयपक्षीय करारों पर हस्ताक्षर के बाद जर्मन चांसलर ओलाफ शॉल्त्स ने यूक्रेन संकट को लेकर रूस को भला-बुरा कहा, और पीएम मोदी से आशा व्यक्त की कि वो पुतिन के इरादे परिवर्तित कर सकते हैं। यही समवेत स्वर कोपेनहेगन में नॉर्डिक शिखर बैठक में उपस्थित नेताओं के थे। इस पूरी यात्रा में पीएम मोदी बहुत नपे-तुले अंदाज़ में सबकी सुनो, और अपनी करो की भूमिका में थे। पूरी सावधानी बरती कि पुतिन की आलोचना पर उनकी हामी किसी भी प्लेटफार्म पर न हो।
बर्लिन में जर्मन चांसलर ओलाफ शॉल्त्स ने कहा था कि हम रूस के विरूद्ध कड़े प्रतिबंधों में भारत का समर्थन चाहते हैं। पीएम मोदी ने इसके बरक्स पुतिन के शब्दों को दोहराया, ‘ हम मानते हैं कि इस युद्ध में कोई विजयी नहीं हो सकता।‘ नरेंद्र मोदी ने रूस की निंदा से स्वयं को दूर रखा, पत्रकारों तक को सवाल पूछने की मनाही थी, जबकि आमतौर पर साझा प्रेस सम्मेलन में जर्मन मीडिया को किसी भी शासन प्रमुख से चार प्रश्नों को पूछने की अनुमति होती है। क्या पीएम मोदी कुछ असहज प्रश्नों का उत्तर देने से बचना चाहते थे? ज़ाहिर है, भारत में क्या कुछ चल रहा है, उससे जर्मन मीडिया अच्छी तरह वाकिफ है। आप बुलडोजर से लेकर हनुमान चालीसा की राजनीति करें, और जर्मन पत्रकार उसपर सवाल न पूछें, ऐसा संभव नहीं था।
जर्मनी-भारत के बीच जो 14 उभयपक्षीय समझौते हुए, उसमें प्रवासी, परमाणु शोध, दोनों सरकारों के बीच समन्वय व संवाद जैसे विषय भी शामिल किये गये हैं। जर्मनी ने अक्षय ऊर्जा, हाइड्रोजन और शेष विषयों में सहयोग के वास्ते 10 अरब यूरो की राशि आबंटित कर दी है। सबके बावजूद, बर्लिन के कूटनीतिक गलियारों में जिस गर्मजोशी की अपेक्षा हम कर रहे थे, वो संभवतः यूक्रेन की वजह से फीकी पड़ गई। ऐसे समय पीएम मोदी का जर्मनी जाना क्या सही था? आप बर्लिन के ब्रांडेनबुर्ग गेट पर अप्रवासी भारतीयों का इवेंट करायें, कोपेनहेगन में ढोल पर थाप लगायें और इससे भक्त आह्लादित हों कि भव्य स्वागत हुआ, अब ये सारे टोटके पुराने पड़ चुके हैं।
इंडिया-नार्डिक समिट में पीएम मोदी फिनलैंड, नार्वे, स्वीडेन, डेनमार्क और आइसलैंड के शासन प्रमुखों से क्लिन एनर्जी, आर्कटिक रिसर्च, तकनीक के क्षेत्र में निवेश व हाईड्रोजन ऊर्जा तकनीक में बहुपक्षीय सहकार का संकल्प कर आये हैं। फ़िल-वक़्त चीन, फ्यूल सेल इलेक्ट्रिक व्हीकल (ईसीईवी) उत्पादन में काफी आगे बढ़ चुका है, जबकि मोदी ने 2021 में ‘नेशनल हाईड्रोजन मिशन‘ की घोषणा की थी। इस समय पेंच फंसा है रूस को लेकर। यूरोप अब भी रूस से तेल गैस ले रहा है, और भारत को बहिष्कार करने का उपदेश दे रहा है।
सच यह है कि 27 सदस्यीय यूरोपीय संघ में शामिल हंगरी और स्लोवाकिया ने दो टूक कह दिया, ‘हमारे पास रूस से गैस-तेल लेने के सिवा और कोई विकल्प नहीं।‘ 2020 तक रूस कुल कच्चे तेल के निर्यात का 53 फीसद यूरोप भेजता रहा। तेल का बायकॉट तो शायद कर लें, क्योंकि उसकी सप्लाई के विकल्प टैंकर हैं। मगर, गैस का बहिष्कार कहां से संभव है? यूरोपीय नेता इस सवाल पर बगलें झांकते हैं। पाइपलाइन के ज़रिये 23 यूरोपीय देश रूस से गैस लेते रहे.
यूरोपीय नेता चाहते हैं कि तेल न मंगाकर रूस का बजट बिगाड़ दें। रूस का दबाव है कि तेल-गैस चाहिए तो डॉलर में नहीं, रूबल में पेमेंट करो। गाजप्रोम बैंक में अपने देश की करेंसी या डॉलर जमा कराइये और रूबल प्राप्त कीजिये. 27 अप्रैल 2022 को ब्लूमबर्ग की रिपोर्ट आई कि यूरोप की दस कम्पनियाँ गाजप्रोम बैंक में अपने अकाउंट खोल चुकी हैं. इसे रूस का बहिष्कार कहेंगे, या घुटने टेकना? रूस की आय का 43 फीसद, गैस व तेल के निर्यात से प्राप्त होता है। पैरिस स्थित ‘आईईए‘ के मुताबिक़, ‘ रूस का 60 फीसद तेल ओएसईडी यूरोप को जाता है, और 20 प्रतिशत चीन आयात करता है। यूरोप के जो देश ओएसईडी के सदस्य है, क्या उनमें रूस तेल-गैस आयात को लेकर एका है? दूसरा पेंच ओपेक में फंसा है, उसका चोबदार सऊदी अरब ने साफ कर दिया है कि हम उत्पादन बढ़ाएंगे नहीं।
‘आईईए‘ के अनुसार, ‘रूस तेल उत्पादन के मामले में अमेरिका, सऊदी अरब के बाद तीसरे नंबर पर है। जनवरी 2022 में रूस का टोटल तेल प्रोडक्शन 11.3 मिलियन बैरल प्रतिदिन (एमबीडी )का था। उस अवधि में अमेरिका का 17.6 एमबीडी और सऊदी अरब का 12 एमबीडी। ‘ तेल की क़ीमतों का आकलन करने वाले एक समूह का कहना है कि कच्चे तेल की क़ीमत 120 से 130 डॉलर प्रति बैरल पर आ जाएगी। दूसरा ग्रुप कहता है कि रूस डिस्काउंट प्राइस पर तेल बेचेगा, तब क्रूड ऑयल की क़ीमतें जून 2022 तक 100 डॉलर प्रति बैरल पर हो जाएगी, और साल समाप्त होते-होते 60 डॉलर प्रति बैरल तक घड़ाम हो जाएगी।
ब्लूमबर्ग की एक और रिपोर्ट आई है कि अंतरराष्ट्रीय दबाव के बावज़ूद, भारत की पब्लिक और प्राइवेट रिफाइनरियाँ रूस से कच्चे तेल के आयात को लगातार बढ़ाये जा रही हैं। रूसी तेल कंपनियां भारत को कच्चा तेल सस्ते में दे रही हैं। 2021 में जो शिपमेंट हुआ था, उसके मुक़ाबले, इस साल 20 प्रतिशत अधिक है। पुतिन तेल के खेल में लग गये हैं। तेल देखिये-तेल की घार देखिये, मोदी का ढोल तो बजता रहेगा !