अभयानंद(पूर्व आईपीएस अधिकारी)
पूरे चालीस साल हो गए। साहेबगंज और पाकुर एक ही जिला हुआ करते थे। मेरा पदस्थापन संयुक्त जिले के पुलिस अधीक्षक के रूप में हुआ था। झारखण्ड की स्थापना तब नहीं हुई थी। बिहार अविभाजित था।
पदभार ग्रहण के 24 घंटे के अंदर ही समझ आ गया था कि अगर पुलिस की पारम्परिक कार्यशैली पर चलता रहा तो इस जिले में दिन-रात सोने के अतिरिक्त कोई काम नहीं रहेगा।
गैर-कानूनी खनन बहुत बड़े पैमाने पर चल रहा था। इस कार्यवाई में राज्य और केंद्र सरकार, दोनों की संलिप्तता थी। पाकुर के ग्रेनाइट चिप्स विश्व स्तर के हैं जिनकी मांग अंतर्राष्ट्रीय होती है। रेल से इनकी ढुलाई के दौरान वजन में हेरा-फेरी कर, राज्य के बाहर बड़े पैमाने पर भेजा जाता था। यह काम निरंतर चलता रहा।
मैंने, अपनी कार्यशैली से, आर्थिक अपराध में मेरी विशेष रुचि के संकेत दे दिए थे। लोगों ने रेल के द्वारा पाकुर ग्रेनाइट के अवैध ढुलाई की सूचना मुझ तक पहुँचा दी।
तालझारी रेल स्टेशन पर स्वयं औचक रूप से पहुँच, “डीले मेमो” दे कर, मैंने ग्रेनाइट से लदी एक रेक को रुकवाया और रेल के पदाधिकारयों को “वे ब्रिज” पर रेक का वजन करने को कहा।
पहले तो मुझे समझाने की कोशिश की गई कि यह मेरे कार्य क्षेत्र के बाहर है तो मुझे बताना पड़ा कि मैं जो भी कर रहा हूँ, वो पुलिस की प्रदत्त शक्तियों के अंतर्गत ही है। मेरी प्रतिबाधता को देख कर वजन कराया गया। जब आँकड़ों के आधार पर गणना की गई तो सरकार के विभिन्न राजस्वय अर्थात रॉयल्टी, सेस, बिक्री-कर और रेल का किराया कुल जोड़, उस ज़माने में कई लाख का था।
मैं हतप्रभ था कि ऐसे कितने रेक इस छोटे से जिले से प्रतिदिन ग्रेनाइट लेकर निकलते हैं तो सरकार के राजस्व की हानि करोड़ों में होती होगी।
इस अपराध को न देख कर मैं “मुर्गी चोरी” के अपराध में अपना समय लगा रहा हूँ। 5 महीने में “हाय-तौबा” मच गया। बिहार से लेकर पश्चिम बंगाल के उस समय के प्रभावशाली राजनीतिज्ञ परेशान हुए और मेरा तबादला IB दिल्ली में हो गया।
ज़िन्दगी के इस पड़ाव से जब देखता हूँ तो लगता है कि चालीस वर्षों में कुछ भी नहीं बदला। बदले तो केवल राजनीतिक पार्टी और उनके नेताओं तथा नौकरशाहों के नाम।
भ्रष्टाचार का स्वरुप और उस बिमारी से पीड़ित जनता के हालात में कोई बदलाव नहीं आया। समय की निरंतरता शायद इसी को कहते हैं।
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