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भैंस चराने वाले लड़के का राजनीति में आना और फिर उसका लालू बन जाना कोई मामूली किस्सा नहीं

प्रियांशु

 

भैंस चराने वाले लड़के का राजनीति में आना और फिर उसका लालू बन जाना कोई मामूली किस्सा नहीं है। बिहार में अक्सर कहा जाता है, “लालू किसी व्यक्ति का नाम नहीं है, ये बिहार की जीवनधारा में बहने वाली विचाराधारा है.” जो कुछ भी लिखा जाए, लालू बिहार के सुनहरे ख्वाब के हकीकत का नाम है, एक उम्मीद का नाम है, विश्वास का नाम है। जब खेतों में भैंस और सुअर चराने वालों के बच्चों के बारे में कोई सोचना भी मंजूर नहीं करता था, तब लालू प्रसाद यादव उनके लिए चरवाहा विद्यालय खोल रहे थे। समाज में हाशिए पर खड़े तबके तक संदेश पहुंचा रहे थे, उन्हें बता रहे थे कि उनके बीच का कोई अपना बिहार की गद्दी पर बैठ चुका है जो उनके लिए भी सोचता है उनके हित में फैसले लेता है।

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बिहार से लालू को अलग कर पाना असम्भव है। उनकी राजनितिक पारी की शुरूआत पीयू छात्र संघ अध्यक्ष से हुई, नेता बने तो जेपी के आंदोलन का मुख्य किरदार बना दिए गए, 29 की कच्ची उम्र में कांग्रेस के मज़बूत वट वृक्ष को चुनौति दी और संसद पहुंच गए। उनके प्रतिध्वनियों ने इन्दिरा को भी लाज़वाब किया।

साल दर साल चुनाव लड़ते रहे, जीतते रहे और परिपक्व होते चले गए। फिर नब्बे में कर्पूरी ठाकुर की विरासत पर दावा ठोक दिया, तत्कालीन प्रधानमंत्री वीपी सिंह को आंख दिखाते हुए विधायक दल का नेता बनें और 42 की उम्र में बिहार के मुख्यमंत्री बन गए।

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सत्ता में आए तो धराधर नए आयाम पेश करते गए। सबसे पहले तथाकथित अगड़ी जातियों के वर्चस्व को तोड़ा। ब्राह्मण, राजपूत और भूमिहारों के संरक्षण में चली आ रही बिहार की सियासत को उखाड़ फेंका और तय कर दिया की बिना पिछड़ों और शोषितों की मर्जी से बिहार में कोई नई सरकार नहीं बनेगी।

मुशहर समुदाय से आने वाली भगवतिया देवी को संसद में भेजा, मुस्लिम विधायकों को मंत्री बनाकर आगे की श्रेणी में खड़ा कर दिया। जब रेल मंत्री बने तो मिट्टी के बर्तन (कुल्हड़) में चाय बेचना अनिवार्य कर दिया। बतौर नेता सामाजिक बदलाव का ऐसा आयाम पेश किया की अल्पसंख्यकों और पिछड़ी – शोषित जातियों को समाज के तथाकथित अगड़े समुदाय के सामने तनकर खड़े होने की हिम्मत मिल गई।

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ये लालू प्रसाद यादव वे ऑफ पॉलिटिस थी जिसके खिलाफ़ मीडिया, ब्यूरोक्रेट्स, सरकारें, नौकरशाही, जांच एजेंसियां पूरी मुस्तैदी से खड़ी हो गईं। इसके पीछे की वजह क्या थी?.. शायद बहुत सारी। लेकिन एक बड़ी वजह ये है कि लालू प्रसाद यादव जिस धारा का नेतृत्व कर रहे थे उसमें दलित, पिछड़ी और मध्यवर्ती जातियों में राजनीतिक महत्वाकांक्षा पैदा हो रही थी। बिहार जैसे अत्यंत पिछड़े राज्य में पहली बार कोई ऐसा राजनेता आया था जो सामंतवादी ताकतों को उसी की भाषा में जवाब दे रहा था.

1990 में जब आडवाणी ने राम मंदिर के नाम पर रथयात्रा निकाली तो देशभर में जगह-जगह दंगे हुए। लेकिन वो लालू ही थे जिन्होंने खून से सने उस रथ के पहिए को बिहार में पहुंचते ही कूड़ेदान में फेंकवा दिया, आडवाणी को गिरफ़्तार कर पूरे देश को संदेश दे दिया कि उनके होते बिहार में कोई नफरती चिंटू धर्म की दुकान चलाकर दंगे नहीं भड़का सकता है।

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ख़ैर किसे पता था, भैंस की पीठ पर बैठकर नवीन भारत का ख़्वाब देखने वाला लड़का जातीय-भेदभाव के गट्टर में गिरे बिहार को सामाजिक एकता के सूत्र में बांधेगा, तब किसे पता था कि वही लड़का एक दिन सामाजिक न्याय का पुरोधा, गरीबों का मसीहा और दबे-कुचले हर हिन्दुस्तानी की बुलंद आवाज बनेगा।

भारत की राजनीति में लालू प्रसाद यादव सबसे अलग रहे, उनके देखने सोचने का नज़रिया बेखौफ था, अभी भी है। राजनैतिक जीवन में उनकी चाहे जो भी कमियां या उपलब्धियां रहीं हो, वो कभी नैतिकता में नीचे नही गिरे, कभी घिनौनी राजनीति नही की, सत्ता के गहरे कुएं में कूदे लेकिन लाशों की राजनीति नहीं की। गलतियाँ उतनी ही कि जीतना दूसरे नेता करते रहे है। राजनैतिक चुनौतियों का सामना किया लेकिन कभी नफरतवादी ताक़तों से हाथ मिलाकर अपने उसुलों से समझौता नहीं किया। अपना काम ईमानदारी से करते गए। नतीजा ये हुआ कि उनसे चिढ़ने वाले लोग उनसे बड़ी लकीर तो नहीं खींच पाए, उल्टा उनकी खींची लकीर काटने के चक्कर में और छोटे होते चले गए।

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एक बात दावे से लिखे जा रहा हूं… इस दुनिया के तमाम जीवित नेताओं में बाबू लालू प्रसाद यादव से महान राजनेता कोई नहीं है। साहब आज 75 साल के हो गए । भगवान उनकी लंबी आयु और लंबी करे।

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