Nationalist Bharat
विविध

नफरत फैलाने का जरिया बन गया है टीवी मीडिया

◆राजदीप सरदेसाई

नूपुर शर्मा विवाद के बाद से भारतीय टीवी न्यूज मीडिया की सर्वत्र आलोचना की जा रही है। लेफ्ट-लिबरलों का कहना है कि न्यूज टीवी नफरतियों के लिए बोलने का मंच बन रही है। वहीं दक्षिणपंथियों और विशेषकर हिंदुत्ववादियों का कहना है कि न्यूज टीवी पर सिलेक्टिव रोष जताया जाता है और उस पर मुस्लिम कट्टरपंथी कुछ भी बोलने के बावजूद बच निकलते हैं। तो आखिर सच्चाई क्या है?

Advertisement

सबसे पहले लेफ्ट लिबरलों का तर्क लेते हैं। क्या न्यूज टीवी नफऱतियों की आवाज बन रही है? इसका संक्षिप्त जवाब है, हां। इसमें कोई संदेह नहीं है कि आज साम्प्रदायिक जहर उगलने वालों की तादाद बढ़ती जा रही है। 1990 के दशक में सरकारी तंत्र द्वारा संचालित दूरदर्शन के एकाधिकार से मुक्त होने के बाद जब निजी न्यूज चैनल सामने आई थीं, तब उनमें वैसी गलाकाट स्पर्धा नहीं थी, जैसी आज दिखलाई देती है। जब टीवी न्यूज इंडस्ट्री नई थी तो सम्पादकों और पत्रकारों पर बाजार का दबाव नहीं था और वे जर्नलिज्म फर्स्ट की नीति से काम कर सकते थे। लेकिन आज देश में 24 घंटे चलने वाली कोई चार सौ न्यूज चैनल हैं और अधिक से अधिक दर्शकों को अपने खेमे में लाने की मारामारी है, जिससे सनसनी रचने की होड़ मची हुई है। यही कारण है कि आज न्यूज टीवी पर जो डिबेट-फॉमेंट प्रचलित है, उसमें होने वाली बहसें बहुत ध्रुवीकृत हो जाती हैं। पहले जमीनी रिपोर्ट ही न्यूज का स्रोत होती थीं, लेकिन अब टीवी स्टूडियो में बैठे लार्जर दैन- लाइफ एंकर्स खबर के बजाय शोरगुल की संस्कृति रचने में व्यस्त हो चुके हैं। अब का स्वरूप भी आमूलचूल बदल गया है। बहस

मुझे याद आता है कि 1990 के दशक में एक बार मैंने वरिष्ठ कांग्रेस नेता वी.एन. गाडगिल को सेकुलरिज्म पर लिखे उनके एक निबंध पर चर्चा के लिए आमंत्रित किया था। मेरी योजना थी कि दूसरा पहलू अरुण शौरी रखेंगे, जो कि गाडगिल जितने ही प्रखर बौद्धिक थे। लेकिन गाडगिल ने यह कहते हुए मना कर दिया कि मैं एक गम्भीर विषय को तू-तू- मैं-मैं मैं नहीं बदलना चाहता। उस जमाने में किसी विषय पर चर्चा या बहस के लिए दो या तीन मेहमानों को ला पाना कठिन था, लेकिन आज टीवी चैनल पर दस-दस विश्लेषक होते हैं और वे एक-दूसरे पर चीखते-चिल्लाते रहते हैं। यह केवल भारत में ही नहीं, पूरी दुनिया में हो रहा है, जिससे समाचार- संकलन की परम्परागत पत्रकारिता खत्म होती जा रही है। टीआरपी नामक दोषपूर्ण रेटिंग सिस्टम के प्रभाव में आकर अनेक न्यूज चैनल यह मान बैठे हैं कि धार्मिक मसलों पर शोरगुल वाली बहसें करने से ही दर्शक मिलेंगे। वैसे में महंगाई या अर्थव्यवस्था जैसे नीरस समझे जाने वाले विषयों पर कोई चैनल क्यों डिबेट करेगा। अमेरिका में फॉक्स न्यूज नफरत से मुनाफा कमाने के लिए बदनाम है। जबकि भारत की न्यूज चैनल तो अब फॉक्स से भी आगे चली गई हैं। लेकिन जब समाज में ही हेट-स्पीच आम हो गई हो तो अकेले न्यूज-टीवी को दोष देने से क्या होगा? इस साल की शुरुआत में एक हेट स्पीच ट्रैकर ने बताया था कि 2014 के बाद से मीडिया में असंसदीय भाषा के इस्तेमाल की सुनामी आ गई है।

Advertisement

अब जरा दक्षिणपंथियों की दलील पर बात कर लें। याद करें कि लगभग एक दशक पूर्व अमेरिका में फॉक्स न्यूज का उदय ही इसलिए हुआ था, क्योंकि दक्षिणपंथी राजनेताओं को आपत्ति थी कि मुख्यधारा के अमेरिकी न्यूज-मीडिया पर लेफ्ट लिवरलों का दबदबा है। शुरू में फॉक्स न्यूज भी फेयर एंड बैलेंस्ड की बात करती थी। धीरे-धीरे दक्षिणपंथियों और उनकी बातों को मीडिया में अधिक स्पेस मिलने लगा। अगर भारत के परिप्रेक्ष्य में बात करें तो इस आरोप से इनकार नहीं किया जा सकता कि एक जमाने में हमारे मीडिया में हिंदुत्ववादियों के विचारों को कोई जगह नहीं दी जाती थी। लेकिन 1992 के बाद जब भाजपा भारतीय राजनीति की धुरी बन गई, तो बदलाव नजर आने लगा। पहले लेफ्ट लिबरल्स नैरेटिव बनाते और चलाते थे, लेकिन अब बहुतेरे न्यूजरूम में दक्षिणपंथियों की तूती बोलती है। यह बात में भी एक भ्रम ही है कि न्यूज टीवी में अल्पसंख्यक समुदाय के कट्टरपंथियों को बढ़ावा दिया जाता है। अधिकतर समय तो टीवी बहसों में टोपीधारी मुस्लिम प्रवक्ताओं का मखौल ही उड़ाया जाता है और उनका एक बुरा चेहरा सामने रखा जाता है। इनमें से कुछ टीवी- मौलानाओं की तो प्रामाणिकता भी संदिग्ध है।

(ये लेखक के अपने विचार हैं)

Advertisement

Related posts

ईपीएस- पेंशन में वेतन सीमा व न्यूनतम पेंशन बढ़ाने की मांग की बीएमएस ने

Weather Forecast: दिल्ली में होगी बारिश! बिहार-यूपी-झारखंड में अलर्ट

Nationalist Bharat Bureau

Leave a Comment