देवेश शास्त्री
दर्शनर्शIIस्त्र खुद को जानने पर जोर देता है। अन्तर्मुखी होकर ‘आत्मदर्शन’ ही ‘‘सेल्फी’’ है, जबकि खुद अपनी चेहरे की तस्वीरें खींच कर सोशल मीडिया पर अपलोड और साझा करने का चलन ‘सेल्फी’ नाम से जाना जाने लगा है। हमारा संसार मुख्य रूप से हमारे कार्यक्षेत्र और समाज में हमारे व्यावहारिक आदान-प्रदान से निर्मित होता है। किंतु यह हमारे जीवन का केवल सामाजिक पहलू ही है। शायद स्मार्ट फोन ‘‘सैल्फी’’ के अर्थान्तरण से की सही हमारे आध्यात्मिक क्षितिज में भी प्रवेश कर गई है। हालांकि जब स्मार्टफोन आदि मौजूदा विज्ञान भी नहीं था, तब भी सेल्फी थी। सेल्फी सृष्टि के प्रारंभ से ही प्रचलन में है, ऋषि-मुनि एकाग्रचित्त अन्तर्मुखी होकर ‘आत्मदर्शन’ में लीन रहते थे आत्मज्ञान का प्रतिपादन सेल्फी की परिभाषा थी।
आत्मज्ञान का अर्थ अपने ‘स्व’ अथवा ‘आत्म’ जिसके लिए अंग्रेजी में ‘सेल्फ’ शब्द है, उसके चिंतन तथा मनन से होता था। जीवन में कौन-कौन से तत्व तथा कारक हैं, जो हमें विभिन्न दिशाओं में खींचते हैं तथा मानव परिस्थितियों का निर्माण करते हैं, ये परिस्थितियां जो ‘स्व’ का निर्माण करती हैं तथा हमारे जीवन को विभिन्न आयामों पर ला खड़ा करती हैं, उनका चिंतन तथा उससे उपजी समझ को हम आत्मज्ञान की श्रेणी में रखते थे। यह आत्मज्ञान जीवन के बदलावों तथा उसकी नित्य नूतन परिस्थितियों में हमारा सम्बल तथा हमारा सबसे विश्वसनीय दोस्त होता था। जीवन के जिन मोड़ों पर सब हमारा साथ छोड़ देते हैं उन मोड़ों पर भी आत्मज्ञान हमारे साथ होता था, क्योंकि वही सही मायनों में हमारा अपना होता था।
आये दिन खबरें आती हैं कि स्मार्टफोन से सेल्फी लेते समय हादसे में जान गई, इस तरह ‘सेल्फी’ लेते वक्त 70 फीसदी मौतें भारत में होती हैं। सर्वविदित है 22 सितम्बर 2011 को मैं दुर्घटनाग्रस्त हुआ था, कैसी हालत थी? बताने की जरूरत नहीं, किन्तु उस हादसे का कारण भी ‘‘सेल्फी’’ ही था, स्मार्टफोन से अपनी तस्वीर खीचने वाली सेल्फी नहीं, बल्कि अन्तर्मुखी होकर ‘आत्मदर्शन’ की ‘‘सेल्फी’’। प्रायः मिलने जुलने वाले लोगों की शिकायत रहती है कि ‘‘आप अमुक रास्ते से जा रहे थे, मैने नमस्कार किया, आपने देखा तक नहीं।’’ मैं कह देता मै देख नहीं पाया। वास्तव में सेल्फी (अन्तर्मुखी होकर ‘आत्मदर्शन’ प्रक्रिया में) न आंखें देखती हैं, न कान सुन पाते हैं, न नाक सूंधती यानी ज्ञानेन्द्रियां निष्क्रिय रहती है, हां कमेन्द्रियां मशीनरी की तरह क्रियाशील रहती है। कभी तो सेल्फी के चक्कर में अपने लक्ष्य से आगे निकल जाता हूं, निकला था ड्यूटी करने देशधर्म के लिए, आत्मदर्शान की सेल्फी में नौरंगाबाद चैराहे पर पहुंचना फिर ध्यानभंग होने पर लौटना पड़ता है। कुल मिलाकर स्मार्टफोन के इस स्मार्ट युग में आत्म-ज्ञान के मायने ही बदल गए हैं।