Nationalist Bharat
विविध

उतार फेंकिए बातों का बोझ

संजय सिन्हा
बातों का बोझ दिल से उतारना सीखिए। कल मैं किसी से मिला तो वो फलां से बहुत नाराज़ थे। क्यों? क्योंकि फलां ने बहुत साल पहले ऐसा कुछ कह दिया था, जो उन्हें अच्छा नहीं लगा था। बुरा लगा तो उसे उन्होंने दिल में रख लिया। मैं हैरान था। मैंने उनसे पूछा भी कि ऐसा क्या कह दिया था?“छोड़िए संजय जी, अब तो हमें याद भी नहीं।”“कमाल है। बात याद नहीं, पर आप उसे अब तक ढो रहे हैं? आदमी कभी-कभी कुछ कह देता है। बिना किसी मंशा के कह देता है।”“संजय सिन्हा जी, हर कोई ऐसा नहीं होता कि वो बातों को भूल जाए। बोलने से पहले किसी को सौ बार सोचना चाहिए।” मैं क्या कहता? मैंने इतना ही कहा कि बातों का बोझ दिल पर नहीं रखना चाहिए। माफ करना सीखिए। उन्होंने जो कहा, उसका अफसोस शायद उन्हें भी हो। आपने उनसे फिर कभी बात की? उन्होंने कहा कि नहीं। उसके बाद फिर कभी हमारी बात ही नहीं हुई। मेरा मन नहीं किया उनसे बात करने का।
मुझे पता है। कभी दोनों एक-दूसरे के बहुत नज़दीक थे। फिर अचानक किसी दिन बात से बात निकलती गई और मुंह से ऐसी कोई बात निकल गई, जो उन्हें चुभ गई। चुभ कई तो वो रिश्तों में नासूर बन गया।मैंने बहुत कोशिश की कि बात खत्म हो जाए। दोनों फिर मिल जाएं। न भी मिलें तो कम से कम मन से बातों की लाश का बोझ तो उतर जाए।पर वो बहुत आहत थे। उन्हें बात ठीक से याद नहीं थी, ये याद था कि उन्होंने कुछ कहा था।आखिर में मुझे उन्हें अपनी सुनाई एक कहानी सुनानी पड़ी। कहानी आपको याद होगी। पहले जब मैंने कहानी आपको सुनाई थी, तब भी संदर्भ रिश्तों का ही था। ऐसी कहानियां याद रखनी चाहिए। “एक बार एक साधु अपने कुछ शिष्यों के साथ एक गांव से दूसरे गांव जा रहे थे। रास्ते में नदी के किनारे साधु को एक महिला मिली। वो चुपचाप नदी के किनारे बैठी थी। साधु ने महिला से पूछा कि तुम अकेली यहां क्यों बैठी हो?

 

Advertisement

महिला ने कहा कि उसे नदी पार करनी है, पर वो तैरना नहीं जानती।साधु ने कहा, “कोई बात नहीं। मैं तुम्हें नदी पार करा दूंगा।”और उस महिला को अपने साथ तैरते हुए उन्होंने नदी के उस पार पहुंचा दिया।साधु के शिष्यों ने देखा कि सारा दिन ब्रह्मचर्य की बात करने वाले ये साधु महाराज उस महिला को नदी पार करा रहे हैं। साधु महिला को नदी के उस पार छोड़ कर वापस लौट आए और अपने शिष्यों के साथ आगे की यात्रा पर निकल पड़े।रात हो गई तो साधु ने रास्ते में अपना डेरा जमा लिया। सारे शिष्यों ने वहीं भोजन का इंतज़ाम किया और भोजन करने लगे।

 

Advertisement

 

साधु ने देखा कि एक शिष्य कुछ बोल नहीं रहा। उसकी आंखों में नाराज़गी सी थी। आख़िर साधु ने उससे पूछा कि तुम इतने ख़ामोश क्यों को। कोई बात हुई क्या? शिष्य तो मानो भरा बैठा था। उसने साधु से कहा, “महाराज आप हमें दिन भर ब्रह्मचर्य का ज्ञान देते हैं, और आप खुद उस महिला को पीठ पर लादे हुए नदी के उस पार ले गए, ये क्या था?”साधु मुस्कुराए। फिर उन्होंने धीरे से कहा कि मैं तो उस महिला को उस पार छोड़ आया। तुम अब तक उसे ढो रहे हो। तुम अब तक उसे मन की पीठ पर सवार किए बैठे हो, इसीलिए दुखी हो। मुझे देखो, मैंने उसे वहीं छोड़ दिया, इसलिए मुझे उसकी याद भी नहीं। क्योंकि मैं उसे अपनी पीठ से उतार आया हूं, इसलिए मेरे मन पर कोई बोझ नहीं। “तुम भी खुश रह सकते हो, अगर मन की पीठ पर कोई बोझ लाद कर न चलो तो।”शिष्य सच समझ गया। वो उठा और गुरू के चरणों पर बैठ गया। मैं गलत समझ रहा था गुरूदेव। कई बार हम अपनी समझ और शंका के बोझ तले खुद को इस कदर दबा लेते हैं कि हम सामने वाले के भाव को समझ ही नहीं पाते। जब हम सामने वाले को समझ नहीं पाते, तो हम उसके विषय में गलत अनुमान लगा लेते हैं। और यही दुख की वज़ह होती है।

Advertisement

Related posts

शादी को सात जन्म का रिश्ता मानना एक प्रोपोगण्डा है

Nationalist Bharat Bureau

बेहराम ठग : पीले रुमाल से गला घोंटकर की सैकड़ो हत्याए

चंद्रयान 3 की लैंडिंग के बाद चांद को लिखी गई चिट्ठी वायरल

Nationalist Bharat Bureau

Leave a Comment