भारतीय सिनेमा के इस सबसे बड़े अभिनेता के जाने के बाद सिनेमा ही नहीं, उनकी फिल्मों में अभिनय के विभिन्न आयाम देखने और महसूस करने वाली पीढ़ी के लोग भी भावनात्मक तौर पर दरिद्र हुए हैं।
◆ ध्रुव गुप्त
पिछले साल आज ही के दिन हिंदी और भारतीय सिनेमा के भी पहले महानायक दिलीप कुमार के इंतकाल के साथ हिंदी सिनेमा के सुनहरे दौर की आखिरी कड़ी टूटी थी। पिछली सदी के चौथे दशक में दिलीप कुमार का उदय भारतीय सिनेमा की ऐसी घटना थी जिसने हिंदी सिनेमा की दशा और दिशा ही बदल दी थी। अति नाटकीयता के उस दौर में वे पहले अभिनेता थे जिन्होंने साबित किया कि बगैर शारीरिक हावभाव और संवादों के सिर्फ चेहरे की भंगिमाओं, आंखों और यहां तक कि ख़ामोशी से भी अभिनय किया जा सकता है। अभिनय का वह अंदाज़ चौतरफा शोर में बहुत आहिस्ता-आहिस्ता उठता एक मर्मभेदी मौन जैसा था जो पूरे भारतीय उपमहाद्वीप को अपने साथ बहा ले गया। अपनी छह दशक लम्बी अभिनय-यात्रा में उन्होंने अभिनय की जिन ऊंचाईयों और गहराईयों को छुआ वह भारतीय सिनेमा के लिए असाधारण बात थी। सत्यजीत राय ने उन्हें ‘द अल्टीमेट मेथड एक्टर’ की संज्ञा दी थी। हिंदी सिनेमा के तीन महानायकों में जहां राज कपूर को प्रेम के भोलेपन के लिए और देव आनंद को प्रेम की शरारतों के लिए जाना जाता है, दिलीप कुमार के हिस्से में प्रेम की व्यथा आई थी। इस व्यथा की अभिव्यक्ति का उनका तरीका कुछ ऐसा था कि दर्शकों को उस व्यथा में भी एक ग्लैमर नज़र आने लगा था। इस अर्थ में दिलीप कुमार पहले अभिनेता थे जिन्होंने प्रेम की असफलता की पीड़ा को स्वीकार्यता दिलाई। ‘देवदास’ उस पीड़ा का शिखर था।
दिवंगत अभिनेता दिलीप कुमार की आज पहली बरसी है। हिंदी सिनेमा में उनका काफी बड़ा योगदान रहा। उन्होंने कई शानदार फिल्मों में काम किया। इनमें से एक फिल्म है, ‘मुगल ए-आजम’। यह हिंदी सिनेमा की एक कालजयी फिल्म है। इसे बनाने में पानी की तरह पैसा बहाया गया। फिल्म में शहजादे सलीम का किरदार दिलीप कुमार ने निभाया और क्या खूब निभाया। वर्ष 1960 में रिलीज हुई इस फिल्म को के. आसिफ ने अपने खून-पसीने से सींचा, तो दिलीप कुमार सहित बाकी कलाकारों ने भी इस फिल्म को बेहतर बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। यही वजह है कि आज भी जब सलीम का नाम लिया जाता है तो एकबारगी मुगल-ए-आजम वाले दिलीप कुमार का चेहरा ही सामने आता है। मगर, हैरानी की बात यह है कि के. आसिफ इस फिल्म में सलीम के किरदार के लिए दिलीप कुमार के नाम पर तुरंत सहमति नहीं बना पाए थे। पहली बार में तो उन्होंने दिलीप साहब को लेने से इनकार ही कर दिया था।
भारतीय सिनेमा के इस सबसे बड़े अभिनेता के जाने के बाद सिनेमा ही नहीं, उनकी फिल्मों में अभिनय के विभिन्न आयाम देखने और महसूस करने वाली पीढ़ी के लोग भी भावनात्मक तौर पर दरिद्र हुए हैं। आज भी उदासी जैसे मर्ज़ की थेरेपी लेनी हो तो हमारे लिए दिलीप साहब की फिल्मों से बेहतर और कारगर कोई और नर्सिंग होम नहीं।
खिराज़-ए-अक़ीदत।