अगस्त, 1942। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के मुंबई अधिवेशन में 8 अगस्त को ‘अंग्रेजों भारत छोड़ो’ का प्रस्ताव पारित हुआ। अगले दिन तक कांग्रेस के सभी बड़े नेताओं को गिरफ्तार कर लिया गया। अंग्रेजों को लगा कि इससे आंदोलन दिशाहीन हो जाएगा। तभी एक युवा महिला ने आगे बढ़कर मोर्चा संभाला और अधिवेशन की अध्यक्षता करते हुए मुंबई के गवालिया टैंक मैदान में तिरंगा फहरा दिया। अंग्रेज सरकार हिल गई। यह कारनामा करने वाली महिला थीं श्रीमती अरुणा आसफ अली।झंडा फहराने के बाद वे भूमिगत हो गईं। अंग्रेज सरकार उनसे इतनी परेशान हो गई कि उनपर 5000 रुपये का इनाम रख दिया और उनकी सारी संपत्ति जब्त करके नीलाम कर दी। लेकिन यह दमन उनके जज्बे को हिला नहीं सका और न ही वे आंदोलन से पीछे हटीं। अरुणा जी बहुत कम उम्र में ही आंदोलन में सक्रिय हो गई थीं और कई बार जेल गईं। समाज में शिक्षा और जागरूकता फैलाने से लेकर क्रांति की अलख जगाने में उनका योगदान अविस्मरणीय है। उनकी बहादुरी के चलते उन्हें “झांसी की रानी” की उपाधि मिली थी।
जीवन परिचय
अरुणा जी का जन्म बंगाली परिवार में 16 जुलाई सन 1909 ई. को हरियाणा, तत्कालीन पंजाब के ‘कालका’ नामक स्थान में हुआ था। इनका परिवार जाति से ब्राह्मण था। इनका नाम ‘अरुणा गांगुली’ था। अरुणा जी ने स्कूली शिक्षा नैनीताल में प्राप्त की थी। नैनीताल में इनके पिता का होटल था। यह बहुत ही कुशाग्र बुद्धि और पढ़ाई लिखाई में बहुत चतुर थीं। बाल्यकाल से ही कक्षा में सर्वोच्च स्थान पाती थीं। बचपन में ही उन्होंने अपनी बुद्धिमत्ता और चतुरता की धाक जमा दी थी। लाहौर और नैनीताल से पढ़ाई पूरी करने के बाद वह शिक्षिका बन गई और कोलकाता के ‘गोखले मेमोरियल कॉलेज’ में अध्यापन कार्य करने लगीं।
विवाह
अरुणा जी ने 19 वर्ष की आयु में सन 1928 ई. में अपना अंतर्जातीय प्रेम विवाह दिल्ली के सुविख्यात वकील और कांग्रेस के नेता आसफ़ अली से कर लिया। आसफ़ अली अरुणा से आयु में 20 वर्ष बड़े थे। उनके पिता इस अंतर्जातीय विवाह के विरुद्ध थे और मुस्लिम युवक आसफ़ अली के साथ अपनी बेटी की शादी किसी भी क़ीमत पर करने को राज़ी नहीं थे। अरुणा जी स्वतंत्र विचारों की और स्वतः निर्णय लेने वाली युवती थीं। उन्होंने माता-पिता के विरोध के बाद भी स्वेच्छा से शादी कर ली। विवाह के बाद वह पति के पास आ गईं, और पति के साथ प्रेमपूर्वक रहने लगीं। इस विवाह ने अरुणा के जीवन की दिशा बदल दी। वे राजनीति में रुचि लेने लगीं। वे राष्ट्रीय आन्दोलन में सम्मिलित हो गईं।
ग्रांड ओल्ड लेडी अरुणा आसफ अली
अरुणा आसफ अली का जीवन-परिचय भारत के स्वाधीनता संग्राम की ग्रांड ओल्ड लेडी और भारत छोड़ो आंदोलन के समय मुंबई के ग्वालिया टैंक मैदान में भारतीय राष्ट्रीय कांग़्रेस का झंडा फहराने वाली अरुणा आसफ अली का जन्म 16 जुलाई, 1909 को तत्कालीन ब्रिटिश पंजाब के अधीन कालका के एक बंगाली ब्राह्मण परिवार में हुआ था. अरुणा आसफ अली की शिक्षा-दीक्षा लाहौर और नैनीताल में संपन्न हुई थी. स्नातक की उपाधि प्राप्त करने के बाद अरुणा आसफ अली गोखले मेमोरियल स्कूल, कलकत्ता में शिक्षक के तौर पर कार्य करने लगीं. अरुणा ने अपने से 23 वर्ष बड़े और गैर ब्राह्मण समुदाय से संबंधित आसफ अली, जो इलाहाबाद में कांग्रेस पार्टी के नेता थे, से परिवार वालों के विरुद्ध जाकर प्रेम विवाह किया.
स्वतंत्रता आंदोलन में शुरुआती भूमिका
आसफ अली से विवाह करने के पश्चात अरुणा सक्रिय तौर पर स्वाधीनता संग्राम से जुड़ गईं. नमक सत्याग्रह के दौरान होने वाली सार्वजनिक सभाओं में भाग लेने के कारण अरुणा आसफ अली को गिरफ्तार कर लिया गया. वर्ष 1931 में गांधी-इर्विन समझौते जिसके अंतर्गत सभी राजनैतिक बंदियों को रिहा किया जाना था, के बाद भी अरुणा आसफ अली को मुक्त नहीं किया गया. अरुणा आसफ अली के साथ होने वाले इस भेद-भाव से आहत होकर उनकी अन्य महिला साथियों ने भी जेल से बाहर निकलने से मना कर दिया. महात्मा गांधी के दखल देने के बाद अरुणा आसफ अली को जेल से रिहा किया गया. वर्ष 1932 में तिहाड़ जेल में बंदी होने के कारण उन्होंने राजनैतिक कैदियों के साथ बुरा बर्ताव करने के विरोध में भूख हड़ताल की. उनके प्रयासों द्वारा तिहाड़ जेल के कैदियों की दशा में तो सुधार हुआ लेकिन अरुणा आसफ अली को अंबाला की जेल में एकांत कारावास की सजा दी गई. जेल से बाहर आने के बाद अरुणा राजनैतिक तौर पर ज्यादा सक्रिय नहीं रहीं.
भारत छोड़ो आंदोलन
8 अगस्त, 1942 को अखिल भारतीय कांग्रेस समिति के बंबई सत्र के दौरान अंग्रेजों को भारत से बाहर करने का संकल्प लिया गया. अंग्रेजी सरकार ने अपने विरुद्ध भारतीय नेताओं को असफल करने के लिए कांग्रेस के बड़े-बड़े नेताओं को गिरफ्तार करना शुरू किया. शेष सत्र की अध्यक्षता अरुणा आसफ अली ने की. उन्होंने बंबई के ग्वालिया टैंक में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का ध्वज फहराकर भारत छोड़ो आंदोलन की शुरूआत की. अरुणा को भारत छोड़ो आंदोलन की नायिका के रूप में याद किया जाता है. कोई स्थिर नेतृत्व ना होने के बावजूद देशभर में अंग्रेजों के खिलाफ कड़े विरोध प्रदर्शन हुए जो यह स्पष्ट कर रहे थे कि अब भारतवासियों को गुलाम बना कर नहीं रखा जा सकता.
जेल यात्रा
अरुणा जी ने 1930, 1932 और 1941 के व्यक्तिगत सत्याग्रह के समय जेल की सज़ाएँ भोगीं। उनके ऊपर जयप्रकाश नारायण, डॉ. राम मनोहर लोहिया, अच्युत पटवर्धन जैसे समाजवादियों के विचारों का अधिक प्रभाव पड़ा। इसी कारण 1942 ई. के ‘भारत छोड़ो आन्दोलन’ में अरुणा जी ने अंग्रेज़ों की जेल में बन्द होने के बदले भूमिगत रहकर अपने अन्य साथियों के साथ आन्दोलन का नेतृत्व करना उचित समझा। गांधी जी आदि नेताओं की गिरफ्तारी के तुरन्त बाद मुम्बई में विरोध सभा आयोजित करके विदेशी सरकार को खुली चुनौती देने वाली वे प्रमुख महिला थीं। फिर गुप्त रूप से उन कांग्रेसजनों का पथ-प्रदर्शन किया, जो जेल से बाहर रह सके थे। मुम्बई, कोलकाता, दिल्ली आदि में घूम-घूमकर, पर पुलिस की पकड़ से बचकर लोगों में नव जागृति लाने का प्रयत्न किया। लेकिन 1942 से 1946 तक देश भर में सक्रिय रहकर भी वे पुलिस की पकड़ में नहीं आईं। 1946 में जब उनके नाम का वारंट रद्द हुआ, तभी वे प्रकट हुईं। सारी सम्पत्ति जब्त करने पर भी उन्होंने आत्मसमर्पण नहीं किया।
सम्मान और पुरस्कार
श्रीमती अरुणा आसफ़ अली को सन् 1964 में ‘लेनिन शांति पुरस्कार’, सन् 1991 में ‘जवाहरलाल नेहरू अंतर्राष्ट्रीय सद्भावना पुरस्कार’, 1992 में ‘पद्म विभूषण’ और ‘इंदिरा गांधी पुरस्कार’ (राष्ट्रीय एकता के लिए) से सम्मानित किया गया था। 1997 में उन्हें मरणोपरांत भारत के ‘सर्वोच्च नागरिक सम्मान’ भारत रत्न से सम्मानित किया गया। 1998 में उन पर एक डाक टिकट जारी किया गया। उनके सम्मान में नई दिल्ली की एक सड़क का नाम उनके नाम पर ‘अरुणा आसफ़ अली मार्ग’ रखा गया।
एक संस्मरण
अरुणा आसफ़ अली की अपनी विशिष्ट जीवनशैली थी। उम्र के आठवें दशक में भी वह सार्वजनिक परिवहन से सफर करती थीं। कहा जाता है कि एक बार अरुणा जी दिल्ली में यात्रियों से भरी बस में सवार थीं। कोई भी जगह बैठने के लिए ख़ाली न थी। उसी बस में आधुनिक जीवन शैली की एक युवा महिला भी सवार थी। एक व्यक्ति ने युवा महिला के लिए अपनी जगह उसे दे दी और उस युवा महिला ने शिष्टाचार के कारण अपनी सीट अरुणा जी को दे दी। ऐसा करने पर वह व्यक्ति बुरा मान गया और युवा महिला से बोला – ‘यह सीट तो मैंने आपके लिए ख़ाली की थी बहन।’ इसके उत्तर में अरुणा आसफ़ अली तुरंत बोलीं – ‘बेटा! माँ को कभी न भूलना, क्योंकि माँ का अधिकार बहन से पहले होता है।’ यह सुनकर वह व्यक्ति बहुत शर्मिंदा हुआ और उसने अरुणा जी से माफ़ी मांगी।
निधन
अरुणा आसफ़ अली वृद्धावस्था में बहुत शांत और गंभीर स्वभाव की हो गई थीं। उनकी आत्मीयता और स्नेह को कभी भुलाया नहीं जा सकता। वास्तव में वे महान् देशभक्त थीं। वयोवृद्ध स्वतंत्रता सेनानी अरुणा आसफ़ अली 87 वर्ष की आयु में दिनांक 29 जुलाई, सन् 1996 को इस संसार को छोड़कर सदैव के लिए दूर-बहुत दूर चली गईं। उनकी सुकीर्ति आज भी अमर है।
पीढ़ियों के लिए प्रेरणास्रोत बनीं महान स्वतंत्रता सेनानी एवं ‘भारत रत्न’ अरुणा आसफ अली जी की जयंती पर उन्हें भावभीनी श्रद्धांजलि।