Nationalist Bharat
विविध

बिहार बन्धु प्रेस और बिहार में हिन्दी

डॉक्टर राजू रंजन प्रसाद
सन् 1846 ईस्वी के पूर्व बिहार में कहीं भी मुद्रणालय की नींव नहीं पड़ी थी। बैप्टिस्ट मिशन के अधिकारियों ने उत्तर-बिहार के अंचलों में ईसाई धर्म के प्रचार तथा विद्यालयों के लिए पुस्तक-प्रकाशन के निमित्त मिशन प्रेस की स्थापना सन् 1846 ई. में की। बिहार में मुद्रणालय की स्थापना का संभवतः यह प्रथम प्रयास था। सन् 1857 ईस्वी में पटना में दो मुद्रणालयों का उल्लेख मिलता है, जो अपने व्यक्तिगत कार्यों के लिए खोले गये थे। अतएव यहाँ के विद्यालयों के लिए कलकत्ता, लखनऊ, बम्बई और बनारस से ही छपी किताबें आती थीं।

सन् 1874 ईस्वी में बिहार बन्धु के लिए कलकत्ता से प्रेस खरीदकर पटना लाया गया। इस प्रेस से यदुनाथ राय के प्रबंधकत्व में पहली बार 9 फरवरी (मंगलवार), 1875 को को बिहार बंधु का अंक मुद्रित-प्रकाशित हुआ। अतः कहा जा सकता है कि 9 फरवरी, 1875 ही से बिहार में देवनागरी लिपि और हिन्दी भाषा में साहित्यिक मुद्रण का आरंभ हुआ। वर्तमान पटना काॅलेज भवन के पूरबी हिस्से पर एक छोटा-सा कच्चा खपरैल मकान था उसी में बिहार बन्धु छापाखाना तथा कार्यालय खोला गया था। इस स्थान पर जब पटना काॅलेज भवन की नींव रखी गई तब उसका प्रेस तथा कार्यालय दोनों वहां से उठाकर कुनकुन सिंह लेन में स्थापित कर दिया गया। सन् 1913 ई. में कर्ज-भार के कारण इस प्रेस की समस्त सामग्री नीलाम हो गई। इस प्रकार बिहार बन्धु प्रेस का अस्तित्व सदा के लिए समाप्त हो गया।

Advertisement

जिन दिनों पंडित दामोदर शास्त्री (1848-1909) बिहार बन्धु कार्यालय में व्यवस्थापक नियुक्त हुए थे, अर्थात् सन् 1876 ई. में, उक्त प्रेस से एक संस्कृत मासिक पत्रिका प्रकाशित हुई। बिहार बन्धु के संस्थापक मदनमोहन भट्ट के परामर्श से पत्रिका का नाम ‘विद्यार्थी’ रखा गया। ‘विद्यार्थी’ राॅयल आकार के आठ पृष्ठों में छपता था। यह बिहार का पहला संस्कृत मासिक पत्र था। इसका पहला अंक सावन मास में तथा दूसरा अंक भाद्र मास में निकला। तीसरे अंक की प्रेस-सामग्री रखी रह गई क्योंकि इस बीच वे प्रेस में कार्यरत नहीं थे। पुनः शा़स्त्री जी जब दूसरी बार बिहार बन्धु के संपादक नियुक्त हुए तब सन् 1878 ई. में उन्होंने तीसरे अंक से ‘विद्यार्थी’ का पुनर्प्रकाशन आरंभ किया। उसके कुछ अंक प्रकाशित भी हुए। फिर इस्तीफा देकर नाथद्वारा चले गये।

‘अरसिकेषु कवित्वनिवेदनं शिरसि मा लिख मा लिख’ का उद्देश्य ‘विद्यार्थी’ पत्र के प्रकाशन से आरंभ हुआ। सन 1880 तक यह पत्र पटना से मासिक रूप में प्रकाशित होता रहा। इसके बाद इसका प्रकाशन उदयपुर से पाक्षिक रूप में हुआ। यह संस्कृत भाषा का पहला पाक्षिक भी था। इसका वार्षिक मूल्य छः रुपये था। विद्यार्थी कार्यालय उदयपुर इसका प्रकाशन-स्थल था। कुछ समय पश्चात यह पत्र श्रीनाथद्वारा में प्रकाशित हुआ और आगे चलकर यह पत्र हिंदी की ‘हरिश्चंद्रचंद्रिका’ और ‘मोहनचंद्रिका’ पत्रिकाओं में मिलकर प्रकाशित होने लगा। सन 1908 ई. तक यह पत्रिका प्रकाशित होती रही। यह पत्रिका सत्सुधारससुखार्थवाहिनी थी।

Advertisement

जैसाकि नाम ही से स्पष्ट है, ‘विद्यार्थी’ पत्रिका छात्रों को ध्यान में रखकर प्रकाशित की जाती थी तथा तदनुकूल सामग्री का चयन/आकलन होता था। भाषा की सरलता और सहजता का ध्यान रखा जाता था। उसमें छात्रोपयोगी समाचार, लेख और कविताएं रहती थीं। अधिकांश सामग्री शास्त्री जी स्वयं लिखकर देते थे। इसके कुछ अंकों में अर्वाचीन नाटक, गीतिकाव्य आदि भी मिलते हैं। कभी-कभी समस्यामूलक श्लोकों का भी प्रकाशन होता था। कतिपय समस्यामूलक श्लोकों में अश्लीलता भी झलकती है। इसमें निम्न श्लोक सतत मुखपृष्ठ पर प्रकाशित हुआ-‘विद्यार्थी विद्यया पूर्णो भवतात्कुरुतान्नरान्। विदुषां मित्र वर्गाणाम संलापैः सहवासतः।।’

दामोदर शास्त्री की सरल और प्रभावशाली भाषा में भावों का प्रकाशन पत्र की रमणीयता को बढ़ा देता था। समालोचना आदि स्तंभों में विचार एवं तर्क को अधिक महत्त्व दिया जाता था। दामोदर शास्त्री का ध्रुवचरित से संबंधित पांच अंकों का नाटक ‘बालखेल’ का प्रकाशन ‘विद्यार्थी’ में ही हुआ था।

Advertisement

1875 ई. में राजा शिवप्रसाद सितारेहिंद ने बनारस से अपना ‘हिंदी व्याकरण’ प्रकाशित कराया जिसमें उन्होंने हिंदी व्याकरण और उर्दू कवायद को निकट लाने का प्रयास किया। सितारेहिंद के व्याकरण के बाद लिखे गये व्याकरण ग्रंथों में कुछ व्याकरण हिंदी और उर्दू को एक भाषा मानकर लिखे गये, कुछ हिंदी को पूर्णतः स्वतंत्र भाषा मानकर। सन् 1877 ई. में मुजफ्फरपुर के बाबू अयोध्याप्रसाद खत्री का ‘हिंदी व्याकरण’ बिहार बन्धु प्रेस, बांकीपुर से प्रकाशित हुआ जो हिंदी-उर्दू का एक मिला-जुला व्याकरण था और दो जिल्दों में छपा। खत्री जी ने व्याकरण के पांच खंड किये थे-पहला खंड-वर्ण विचार-आॅर्थोग्राफी, दूसरा-शब्द विचार, तीसरा-वाक्यविचार, चैथा-चिह्न विचार और पांचवां-छंद विचार। छंद विचार दूसरे जिल्द में छपा था जिसमें हिंदी और उर्दू दोनों के छंदों का निरूपण था, शेष चार खंड पहले जिल्द में छपे थे। अयोध्या प्रसाद खत्री का यह हिंदी व्याकरण अंग्रेजी व्याकरण की रीति पर लिखा गया था जो बिहार के स्कूलों में पढ़ाया जाता था।

इस समय बिहार में कोई दूसरा हिन्दी प्रकाशक नहीं था इसलिए इस अवधि में बिहार बन्धु द्वारा प्रकाशित पुस्तकें दिशा-निर्देशक की तरह रहीं। कलकत्ता में इसने ‘भोजन विचार’ पुस्तक प्रकाशित की थी। पटना से प्रकाशन आरंभ होने पर केशवराम भट्ट का ‘हिन्दी व्याकरण’, ‘विद्या की नींव/नेव’, ‘सज्जाद सम्बुल’ और ‘शमशाद सौसन’ नाटक प्रकाशित हुए। केशवराम भट्ट का सज्जाद संबुल बंगला नाटक के आधार पर लिखा गया था।

Advertisement

केशवराम भट्ट का लघु नाटक ’अंधों को आंख’ बिहार बन्धु छापाखाना, बांकीपुर से 1880 ईस्वी में प्रकाशित हुआ था। इसके पृष्ठों की संख्या 33 थी। प्रथम खंड को ‘पहली झांकी’ तथा द्वितीय खंड को ‘दूसरा अंक’ दर्ज किया गया है। नाटक में मात्र तीन चरित्र हैं-मिर्जा शाहबाज खां, उनकी पत्नी रौशन आरा तथा उनकी दाई। आरंभ में सूत्रधार एक स्त्री नट (नटी) के साथ वार्तालाप करता है। यह नाटक उर्दू लिपि (फारसी) में छपा था। केशवराम भट्ट पर हिंदी में जितनी भी आलोचना आई है, उसमें इस नाटक का कहीं जिक्र नहीं है। उर्दू में भी प्रो. सैयद हसन, डॉक्टर मुजफ्फर इकबाल तथा मुहम्मद कासिम आदि ने भी इसके बारे में कोई सूचना नहीं दी है। उर्दू नाटक का वृहद इतिहास लिखनेवाले डॉ. अब्दुल अलीम नामी ने इस नाटक के बारे में लिखा है-
‘‘अन्धों की आंख (ओपरा)
लेखक: भट्ट, केशव राम
नुस्खा: इंडिया हाउस लाइब्रेरी, लंदन
पृष्ठ 33, पटना, 1880
बी-21-1’’

इस सूचना में कई गलतियां हैं। ‘अन्धों की आंख’ नाम सही नहीं है। ‘अन्धों को आंख’ वास्तविक नाम है। लगता है, मूल पुस्तक श्री नामी ने नहीं देखी थी, वरना एक विशुद्ध गद्य नाटक को ‘ओपरा’ कहने की वह भूल नहीं करते।

Advertisement

अंजुमन तरक्की-ए-उर्दू, पाकिस्तान की शोध पत्रिका ‘उर्दू’ (कराची) के अप्रैल 1985 ईस्वी में श्री अदीब सोहैल ने इंडिया ऑफिस लाइब्रेरी, लंदन में संरक्षित केशव राम भट्ट के नाटक ‘अन्धों को आंख’ की विस्तृत भूमिका के साथ प्रकाशित कर दिया जिसे अलग से भी पुस्तकाकार छाप दिया गया है।22 इस पुस्तक में 1880 ईस्वी के मुखपृष्ठ की छाया भी शामिल है। इस नाटक की भाषा सरल है तथा संवाद सटीक और पात्रों को ध्यान में रखकर लिखे गये हैं।

केशव राम भट्ट की भाषा-नीति उर्दू की ओर झुकी हुई थी। वे उर्दू को खड़ी बोली की एक साहित्यिक शैलीमात्र मानते थे। उन्होंने ‘हिन्दी व्याकरण’ की भूमिका में अपने भाषा संबंधी विचार व्यक्त करते हुए लिखा है कि ’जब कोई किसी विषय को लिखने बैठता है तो उसके सामने बहुत से भाव भी आ खड़े होते हैं। जिन्हें नित्य की बोलचाल नहीं व्यक्त कर सकती। लाचार ऋण लेना पड़ता है। यह ऋण मुसलमान अरबी से लेते हैं और हिन्दू संस्कृत से। इसी कारण हिंदी का एक नाम और उर्दू भी हो गया है। …हिंदी उर्दू को अलग-अलग दो भाषा समझना बड़ी भूल है क्योंकि व्याकरण संबंधी हेरफेर में दोनों के ऐसा कोई भेद नहीं।’ इसी नीति का पालन उन्होंने अपने दोनों उत्तम नाटकों-’सज्जाद सुम्बुल’ और ’शमसाद शौसन’ में भी किया पर लोकमत के उर्दू विरोधी होने के कारण इनके नाटकों को लोकप्रियता नहीं प्राप्त हो सकी। इन नाटकों में आये हुए पद्यों की भाषा उर्दू मिश्रित खड़ी बोली है। ब्रजभाषा का इन्होंने पद्य में कहीं भी प्रयोग नहीं किया। इनके गीत की भाषा का नमूना देखिए-’कहीं अँगरेज हैं वाहम कहीं अँगरेजिनें वाहम।/दियारे हिन्द में अब औज पर जिनका जमाना है।’

Advertisement

पटना जिले के तारणपुर निवासी एवं बाबू रामदीन सिंह के सहपाठी रामचरित्र सिंह (जन्म : 1858 ई.) अपने समकालीन पत्र बिहार बन्धु में नियमित लिखा करते थे। सन् 1880 ई. में उनकी ‘नृपवंशावली’ का प्रकाशन बिहार बन्धु प्रेस से हुआ। यह चैबीस पृष्ठों की पुस्तिका है, जिसमें मतिराम कविकृत ‘नृपवंशावली’, ‘अमात्रिक छन्द-दीपिका’ और गंगा-स्तवन’ के छन्दों का संकलन है। ‘नृपवंशावली’ में क्षत्रिय वंशों का संक्षिप्त इतिहास छन्दोबद्ध वर्णित एवं संकलित है। इसमें छः अध्याय और 182 दोहे हैं। ‘अमात्रिक छन्द-दीपिका’ 15 छन्दों की रचना है। यह किस कवि की रचना है, इसका उल्लेख नहीं किया गया है। गंगा-स्तव’ संस्कृत रचना है, जिसमें 22 अनुष्टुप छन्दों में गंगा की स्तुति की गई है। यह रचना संस्कृत कवि रामनन्दन मयूर की है।

औपनिवेशिक बिहार के आरंभिक कथा-विस्तार में जिन लेखकों ने योगदान दिया उनमें एक नाम हरनाथ प्रसाद खत्री का भी है। कहा जाता है कि आपकी पुस्तक मानव विनोद हिन्दी कहानी की प्रारंभिक रचना है। पुस्तक महज 75 पृष्ठों की है। इसमें चार अध्याय हैं, जिनमें लड़की के ब्याह से पुत्रपालन तक एक लंबी और रोचक कथा है। इस रचना का प्रकाशन सर्वप्रथम सन् 1884 ई. में बिहार बन्धु प्रेस से हुआ था। शिल्प की दृष्टि से इस रचना को किशोरीलाल गोस्वामी की कहानी ‘प्रणयिनी परिणय’ के समकक्ष रखा जा सकता है। लंबी रचना होने के कारण जिस प्रकार ‘प्रणयिनी परिणय’ को कुछ लोगों ने उपन्यास कहा है, उसी प्रकार मानव विनोद को भी काया की दृष्टि से लघु उपन्यास कहा जा सकता है।

Advertisement

1884 ई. में ही बिहार बन्धु प्रेस से भारतेंदु की एक व्याकरण-पुस्तिका ‘प्रथम हिंदी व्याकरण’ प्रकाशित हुई थी जिसमें हिंदी की समृद्धि के लिए तत्सम, देशज, विदेशज शब्दों से परहेज करना नहीं लिखा गया था।

बिहार के और हिन्दी के ’पहले सफल जीवनी-लेखक’ बाबू शिवनन्दन सहाय जी का जन्म 1860 ईस्वी में शाहाबाद के ’अख्तियारपुर’ गांव में हुआ था। कहा जाता है कि आपके पूर्वज श्री धरणीदास जी की देखभाल के लिए ’अख्तियारी’ नामक एक दाई थी, जिसके नाम पर इस गांव का नामकरण हुआ। सहाय जी अपने गांव का इतिहास लिखा जो 1885 ईस्वी में ’हिस्ट्री ऑफ अख्तियारपुर’ शीर्षक से बांकीपुर के बिहार बन्धु प्रेस से प्रकाशित हुआ।

Advertisement

पंडित महावीर दत्त (बादशाहीगंज, पटना सिटी) ने संस्कृत में लिखित वैद्यक ग्रंथ ‘गोरखा गुटका शतक’ का हिन्दी कवित्त, दोहा एवं चैपाइयों में अनुवाद किया जिसका प्रकाशन बिहार बन्धु प्रेस बांकीपुर, पटना से 1890 ईस्वी में हुआ। यह मूलतः आयुर्वेद संबंधी पद्यात्मक रचनाओं का संकलन है। पुस्तक का हिन्दी अनुवाद भी विक्रम संवत 1947 अर्थात 1890 ईस्वी को पूर्ण हुआ-
‘‘उन्नीस सै सैंतालिसे विक्रम संवत् जान।
आश्विन कृष्णा एकादशी, गुरुवार जग मान।।
किया ग्रंथ सम्पूरण जानो सकल जहान।
पढ़ै औषधि का करे, पंडित होय महान।’’

गुलजारबाग, पटना के कलटू भगत ने सन 1890 ईस्वी में ‘संक्षेप रामायण’ की रचना की थी-
‘‘उन्नीस सौ सैंतिस समत, कृष्ण पक्ष बुधवार।
श्रावण मास पवित्र तिथि, भा संक्षेप प्रचार।’’

Advertisement

‘संक्षेप रामायण’ का प्रथम संस्करण बिहार बन्धु प्रेस बांकीपुर, पटना से सन 1890 ईस्वी में प्रकाशित हुआ था। जैसाकि इसके आवरण पृष्ठ पर अंकित है, इस पुस्तक की भाषा का परिष्कार भारतेन्दु युग के प्रख्यात विद्वान लेखक और पटना कॉलेज, पटना के संस्कृत प्राध्यापक पंडित बिहारी लाल चैबे ने किया था।

‘संक्षेप रामायण’ में एकाधिक स्थलों पर खड़ी बोली का पुट है किंतु इसके खड़ी बोली पद्य में उत्कृष्टता और परिपक्वता का अभाव है:
‘‘कहै दसानन सुन रे बंदर।
क्यों आये तु कोट के अंदर।।
अंगद कहे यहां क्या डर है।
भूत पिसाचन का क्या घर है।।
राम चरन और न शरना।
सुनु मद मत देव का दलना।।’’

Advertisement

आरा निवासी जैनेन्द्र किशोर द्वारा रचित और सन 1894 में बिहार बन्धु छापाखाना बांकीपुर, पटना के तत्वावधान में प्रकाशित ‘भजन नवरत्न वा जिन धर्म भजनावली’ का दुर्लभ प्रथम संस्करण प्राप्य है। प्रथम संस्करण का दाम प्रेम है और इसकी पाँच सौ प्रतियाँ निःशुल्क वितरण के लिए प्रकाशित हुई थीं। जैनेन्द्र किशोर ने अपने पिता नंदकिशोर लाल के आदेशानुसार जैन धर्मावलंबी भाइयों के विनोदार्थ ‘भजन नवरत्न वा जिन धर्म भजनावली’ की रचना कर प्रकाशित की थी। पुस्तक के शीर्षक से यह भ्रम स्वाभाविक है कि यह मात्र जैन धर्मावलंबियों के लिए है, किन्तु यह भजनावली हिन्दू दर्शन और सत्य की शाश्वत धारा को प्रतिबिंबित करती है। भजनावली (प्रथम भाग) का ‘प्रभु’ या ‘हरि तीर्थंकर’ महावीर नहीं बल्कि परमपिता परमेश्वर हैं। जैनेन्द्र किशोर के भक्ति-काव्य में ईश्वर के प्रति आत्मसमर्पण का भाव है। ‘जगत जल की परछाई’ है-‘अलख अगोचर अंतर जामी भजु किसोर सिरनाई। जगत जल की परछाई।।’

पटना के टेकनारायण प्रसाद ‘मंगल कवि’ की 1897 ई. में बिहार बन्धु प्रेस से ‘फाग-बहार’ पुस्तक छपी।

Advertisement

ठाकुर प्रसाद सिंह की पुस्तक ‘जवाहिर जुबिली जगमगाहट’ सन 1898 ईस्वी में बिहार बन्धु छापाखाना, बांकीपुर, पटना से प्रकाशित हुई थी। इसमें जनता को ब्रिटिश शासन से मिलनेवाली सुविधाओं का खुला वर्णन है। रचनाकार की दलील के अनुसार, भारत में ब्रिटिश शासन ईश्वरीय वरदानस्वरूप था और सभ्यता का प्रचार उसका लक्ष्य था। जनता में ब्रिटिश शासन के प्रति व्याप्त असंतोष को दूर कर उसमें राजभक्ति उत्पन्न करना ‘जवाहिर जुबिली जगमगाहट’ का उद्देश्य है।  सरकार की खामियों के कारण शासन के प्रति जनता में तीव्र असंतोष व्याप्त था इसलिए जन-व्यथा से लोगों का ध्यान हटाने के लिए उक्त कवि ने ‘जवाहिर जुबिली जगमगाहट’ की रचना की।

शिवधारी लाल (सदीसोपुर, पटना) द्वारा लिखित-संकलित पुस्तक ‘शिक्षा संग्रह’ का प्रथम संस्करण 1901 ईस्वी में बिहार बन्धु प्रेस, बांकीपुर से निकला। ‘शिक्षा संग्रह’ को रचनाकार और संकलनकर्ता ने सज्जन भक्तों का दिया हुआ और कहा हुआ ‘सद् उपदेशों तथा सुनीतियों का संग्रह’ कहा है।
‘शिक्षा संग्रह’ के प्रारंभ में गुरु-महिमा का वर्णन है-
‘‘पहले गुरु को ध्यावते निज गुरु रच्यो जहान।
पानी सों पैदा कियो, अलख पुरुष भगवान।।1।।
गुरु है चारि प्रकार के, अपने अपने अंग।
गुरु पावस दीपक गुरु, मलयागर गुरु भृंग।।2।।
मलयागर के निकट वसि, सब द्रुम चंदन होय।
सिख माटी सिख पाथरा, कबहु न चंदन होय।।3।।’’
‘शिक्षा संग्रह’ में अन्य कवियों के पद भी संकलित हैं। सूरदास का पद देखिए:
‘‘तजो मन हरि विमखन के संग।’’

Advertisement

1901 ईस्वी में रामायणी धारा के भक्त कवि अक्षय कुमार (बाघी, मुजफ्फरपुर) की लिखी ‘रसिक-विलास रामायण’ बिहार बन्धु प्रेस बांकीपुर, पटना से प्रकाशित हुई। पुस्तक में कवि ने अपना परिचय यों दिया है-
‘‘मैथिल देश सोहावनो, मध्य बसे एक ग्राम।
बाघी नाम प्रसिद्ध है, तहाँ जन्म को ठाम।।
बसौं तहाँ परिवार युत, लिय सिर शंश्रित भार।
लोग पुकारें नाम कहि, मोकहं अक्षय कुमार।।’’

रसिक विलास रामायण का रचनाकाल उन्नीसवीं शती का अंतिम दशाब्द है। बावन वर्ष की उम्र में कवि ने इसकी रचना की थी-
‘‘यहि बिधि काल बितीत किय, बावन वर्ष परयंत।
देख्यो लीला राम की, किये जो रसिकन संत।।’’

Advertisement

‘रसिक विलास रामायण’ के दूसरे संस्करण के प्रकाशकीय निवेदन में कविपुत्र कामता प्रसाद ने लिखा है कि ‘प्रथम संस्करण की प्रतियां शीघ्र ही समाप्त हो गईं और दूसरे संस्करण की आवश्यकता होते ही पिताजी की मृत्य के कारण ग्रंथ उस समय प्रकाशित नहीं हो सका। इस कारण आजतक यह पुस्तक अप्राप्य रही और इसका उतना प्रचार भी नहीं हो सका जितना हो सकता था।’ लगभग तीस वर्ष बाद 1936 में इसका दूसरा संस्करण पारिजात प्रकाशन, डाकबंगला रोड, पटना से निकला

Advertisement

Related posts

जनसँख्या दिवस – बढती जनसंख्या विश्व के लिए बड़ा खतरा

Nationalist Bharat Bureau

रुपया 78.33 प्रति डॉलर के नए निचले स्तर पर

राहुल गांधी की लोकसभा स्पीकर से मुलाकात,अपने खिलाफ हुई टिप्पणियां हटाने की मांग

Nationalist Bharat Bureau

Leave a Comment