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वो ओरी का पानी

बेशक़ आज टेक्नोलॉजी के प्रवेश के साथ घर पहले से ज्यादा आरामदेह हुए हैं और जीवन की सुविधाएं भी बढ़ी हैं, मगर इन सुविधाओं ने प्रकृति के साहचर्य और उल्लास से वंचित भी कम नहीं किया है।

 

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ध्रुव गुप्त

कल से हमारे शहर में सावन की पहली बारिश हो रही है। हर तरफ बारिश की झमाझम के साथ घरों की छतों से पाइप के सहारे नालियों में और सड़कों पर गिरते पानी का शोर है। इसे सुनकर बचपन के कुछ दृश्य आंखों के आगे घूम रहे हैं। तब खपड़ैल की छतों से बारिश का पानी गिरना शुरु हुआ नहीं कि गांव में उत्सव का माहौल बन जाता था। घरों के तमाम बड़े-छोटे बर्तन और घड़े इस पानी से भर लिए जाते थे। इसे ओरी का पानी कहते थे। इस पानी को इकट्ठा करने की कई वज़हें थीं। आज प्रेशर कुकर के ज़माने में दाल गलाना कोई मसला नहीं है। उन दिनों घर की सबसे बड़ी समस्या यही होती थी। हर कुएं का पानी इसके लिए मुफ़ीद नहीं था। दो-तीन गांवों के बीच कोई एक ऐसा कुआं ज़रूर होता था जिसके पानी में घर-घर की दाल गल जाया करती थी। बरसात में दूर के कुएं से पानी लाने का झंझट खत्म। जाने कैसा रिश्ता था दोनों के बीच कि बटलोही में ओरी के पानी का साथ पाकर ज़रा-सी आंच में ही ज़िद्दी से ज़िद्दी दाल भी पिघल जाती थी। इस दाल की खुशबू और स्वाद का मज़ा कुछ अलग होता था।

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दाल गलाने के अलावा ओरी का पानी पिछले ज़माने का ठंढा, फिल्टर्ड वाटर था। टेस्टी भी, सुरक्षित भी। इसकी एक और ख़ूबी यह थी कि इससे साबुन में झाग ख़ूब बनता था और घर के कपड़े ज्यादा साफ धुलते थे। सबसे बड़ी बात यह थी कि ओरी से गिरता पानी हम गांव के बच्चों का सबसे रोमांचक पिकनिक स्पॉट हुआ करता था। पानी की उस तेज धार में कूद- कूदकर नहाना वैसा ही था जैसा पर्वत से गिरते झरने में नहाना। घरवाले इसके लिए मना भी नहीं करते थे क्योंकि यह पानी घमौरियों और त्वचा की दूसरी बीमारियों की अचूक दवा माना जाता था। परेशानी तब भी नहीं जब तेज बारिश में छप्पर का कोई हिस्सा तोड़कर ओरी का पानी घर के किसी कमरे में घुस आए। छप्पर की मरम्मत होने तक कमरे में कागज की नाव तो चलाई ही जा सकती थी।

 

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बेशक़ आज टेक्नोलॉजी के प्रवेश के साथ घर पहले से ज्यादा आरामदेह हुए हैं और जीवन की सुविधाएं भी बढ़ी हैं, मगर इन सुविधाओं ने प्रकृति के साहचर्य और उल्लास से वंचित भी कम नहीं किया है। ईंट-कंक्रीट के मकानों, मॉड्यूलर किचन, प्रेशर कुकर और फिल्टर्ड, मिनरल वाटर के इस दौर में हमारी पीढ़ी के लिए जो गायब है वह है ओरी के पानी की वह शीतलता, उसका प्राकृतिक स्वाद, उसमें स्नान का सुख और उससे बने भोजन से उठने वाली मिट्टी और खपड़ैल की मिलीजुली सोंधी गंध ! वह गंध अब स्मृतियों में ही बची है।

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