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शादी को सात जन्म का रिश्ता मानना एक प्रोपोगण्डा है

आभा शुक्ला
मुझे लगता है कि शादी को सात जनम का रिश्ता मानना एक ऐसा प्रोपोगण्डा है जो स्त्री को मानसिक रूप से सब कुछ सह कर जीवन बिताने के लिए तैयार करता है…. शादी को पवित्र मानो या मत मानो पर उसको स्नेहिल मानो… इस सात जन्म के बंधन के चक्कर मे ही घरेलू हिंसा की शिकार औरतें आजीवन सहती रहती हैं और उसको तोड़ने का साहस कभी नही कर पाती।जोड़ियाँ स्वर्ग मे बनती हैं, शादी 7 जन्म का बंधन है,पति परमेश्वर होता है,लड़की डोली मे जाती है और अर्थी मे आती है आदि आदि सारे वाक्य सिर्फ औरत से उसका आत्मविश्वास छीनते हैं… समाज की नज़रों मे पवित्र बंधन तोड़ने की दोषी बन जाने के भय से वो हर बुरी से बुरी चीज सहती है परंतु उसको तोड़ने की हिम्मत नही कर पाती….

 

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Tv सीरियल वगैरह मे सदैव से ऐसी औरत को ही नायिका बनाकर पेश किया जाता है जो जीवन भर हर कदम पर बेज्जती सहकर भी सदैव समर्पित रहती है…. यहाँ तक कि अगर पति दूसरा विवाह भी कर ले तो एक धमाकेदार महाएपिसोड मे दिखाते हैं कि सिंदूर मेरा बँटा लेकिन पत्नी धर्म निभाऊँगी सदा… पूरी जिंदगी रो रो कर दूसरे के लिए गुजारने के बाद अंत मे उसको सबका स्नेह मिलता है और कहानी खत्म… आखिर कैसी नायिका है ये? हमारे देश मे स्त्री अपना जीवन जीने के लिए पैदा नही होती, वो धर्म निभाने के लिए पैदा होती है… पत्नी होने का धर्म, माँ होने का धर्म, सबके लिए उसका कोई न कोई धर्म होता है बस खुद को छोड़कर।आज नारी सशक्तिकरण का दौर है.. औरत कंधे से कंधा मिलाकर पुरुषों के बराबर खड़ी है… परंतु कितने प्रतिशत?

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आप सबने जमकर अपने से दस साल छोटे लड़के से शादी करने के लिए प्रियंका चोपड़ा को कोसा… क्यों भाई? जब जोड़ियाँ स्वर्ग मे बनती हैं तो इसमें प्रियंका का क्या कसूर? वाह रे दोमुहेँ साँपो….ये है आपका नारी सशक्तिकरण? यहाँ तो आप औरत को ममता की मूरत, प्रेम की देवी मानते हैं… और फिर उसी देवी के प्रेम पर उम्र का प्रतिबंध लगा देते हैं… क्यों?

 

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कब अनूप जलोटा और जसलीन का रिश्ता दुनिया के सामने आया तो महीने भर तक सोशल मीडिया पर उनके रिश्तों पर बने चुटकुलों का दौर चला… आखिर क्यों भाई?मैं बताती हूँ… आपकी समस्या ये है कि प्रियंका और जसलीन का रिश्ता उनके पिता ने नही जोडा बल्कि उन्होंने खुद जोडा… इसलिए वो हंसी की पात्र हो गई… यदि यही रिश्ता उनके पिता ने जोडा होता तो आप लोग ही कहते वाह भाई… बेटी हो तो ऐसी।सत्य तो ये है कि आपको स्वयं अपने सिद्धांतों पर विश्वास नही है…. परिस्थिति और स्वार्थ के मुताबिक आपके सिद्धांत बनते और बिगङते हैं….
(ये लेखिका का निजी विचार है,लेख उनके फेसबुक वॉल से लिया गया है)

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