डॉक्टर राजू रंजन प्रसाद
उन्नीसवीं सदी के आरम्भ में यद्यपि क्रिश्चियन मिशनरियों ने अपने धर्मप्रचार के लिए हिन्दी का सहारा लिया था परंतु खड़ी बोली उस समय तक जन साधारण के बीच लोकप्रिय नहीं हुई थी। इससे हिन्दी गद्य के प्रचार-प्रसार में कुछ बल मिला परंतु चूंकि 1 जनवरी, 1881 तक उर्दू बिहार की कचहरियों की भाषा थी, अतः सरकारी संरक्षण के अभाव में हिन्दी के प्रचार की गति उस समय धीमी थी। परंतु उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में ही इसके प्रचार की गति में तेजी आ गई। इस प्रगति में दो घटनाओं ने महत्त्वपूर्ण योगदान किया। एक था सन् 1874 से ‘बिहार बंधु’ का पटने से प्रकाशन और दूसरा था सन् 1875 में स्कूल इंसपेक्टर के रूप में श्री भूदेव मुखर्जी का शुभागमन। ‘बिहार बन्धु’ ने बिहार की कचहरियों में हिन्दी भाषा को प्रतिष्ठित करने के लिए जोरदार आंदोलन किया। अपने इस प्रयास में सफल हुआ और सन् 1881 में हिन्दी बिहार की कचहरियों की भाषा घोषित कर दी गयी। देश के अन्य किसी भी प्रांत में हिंदी को अब तक वह स्थान नहीं मिला था।
‘बिहार बन्धु’ बिहार में खड़ी बोली हिंदी के प्रचलन और हिंदी आंदोलन को गतिशील करनेवाला अपने समय का अकेला पत्र था। इसके प्रयास से हिंदी सेवकों का मनोबल ऊँचा हुआ और वे अपने लक्ष्य की ओर पहले की अपेक्षा अधिक दृढ़ता के साथ आगे बढ़े। हिन्दी की शोचनीय दशा और हिन्दी साहित्य के प्रमुख अंग पद्य का प्राचीन ब्रजभाषा में पड़े रहना ‘बिहार बन्धु’ को खटकने लगा था। उसने लिखा-‘हिन्दी पद्य की अवस्था शोचनीय है। हिन्दी के प्राचीन कवि अपने समय की भाषा में रचना करते थे, और केवल कविताई पर ध्यान देते थे। भाषा पर उनका कुछ भी ध्यान न था। उनकी रचना का क्योंकर अन्वय होगा, किसी पद का व्याकरण से कौन-सा रूप बताया जायगा, इसका उनको भ्रान्त ही न था। जैसा वाक्य मुख से निकला वैसा ही लिख दिया, दीर्घ को हृस्व कर दिया, युक्ताक्षर को असंयुक्त और असंयुक्त को युक्त बना दिया। स्त्रीलिंग का पुलिंग और पुलिंग को स्त्रीलिंग, एकवचन को बहुवचन और बहुवचन को एकवचन जैसा जी में आता करते थे। जिनको ये कविताएं सुनाई जाती थीं, वे भी आशय के चमत्कार में भूल जाते थे, भाषा की अशुद्धि पर ध्यान ही नहीं देते थे। आधुनिक कवि भी अन्ध परम्परा की लीक पर चले आते हैं। यहां तक कि इन्होंने प्राचीन कवियों की पुरानी भाषा का पिंड भी न छोड़ा। अब ये कविताएं लड़कों को पढ़ाना मानो साक्षात उनकी बोलचाल बिगाड़ना है। कवियों को बोलचाल की भाषा से कुछ थोड़ा बहुत बहकने की अनुमति (पोएटिक लाइसेंस) हर भाषा में दी गई है, परन्तु कुछ ऐसी अनुमति नहीं है कि कहने को तो अंग्रेजी कविता है पर भाषा बिल्कुल फ्रांसीसी देख लो, कहने को तो आधुनिक अंग्रेजी की कविता है पर जहाँ देखो वहाँ वेल्स या केल्टिक मुहाविरे के गँवार पन भरे हुए हैं। यह विचित्र हिन्दी को छोड़कर और कहीं भी नहीं देख पड़ती। हिन्दी के अंग उर्दू के कवि भी ऐसे बेलगाम नहीं हैं।’
खड़ी बोली काव्य में राष्ट्रीयता और यथार्थवाद का स्पष्ट उद्भव सन् 1876 ई. में हुआ, जिसका श्रेय मानपुरा, मुजफ्फरपुर के लक्ष्मी प्रसाद (जन्म 1860 ई.) को है। कहा जाता है कि आपकी भाषा पर तत्कालीन हिंदी के स्वनामधन्य पक्षधर श्री अयोध्याप्रसाद खत्री की छाप थी। आपका रचनाकाल 1875 ई. से 1890 ई. तक बतलाया जाता है। बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन, पटना के प्रथम अधिवेशन के सभापति पंडित श्री जगन्नाथ प्रसाद चतुर्वेदी ने अपने भाषण में आपकी साहित्य-साधना की चर्चा की है। सन् 1876 ई. के बिहार बन्धु में तो आपकी रचनाएं नियमित रूप से प्रकाशित होती रहीं। 6 दिसंबर, 1876 ई. को बिहार बन्धु में इनकी कविता प्रकाशित हुई। इस कविता में देशमाता को संबोधित करते हुए कवि लक्ष्मी प्रसाद का मार्मिक कथन है: ‘हाय छन न बिसरता है तेरा दुख मन से,/ले गया कौन बदल सोने के घर को वन से।/किस लुटेरे को हुआ राज तेरे अन धान से,/कौन सा रोग गया, तुझ में समा, यों सन से।/आर्यावर्त! तू क्यों करती है, दिन रात विलाप,/कौन से क्रूर हृदय ने, ये, दिया है संताप।’ बिहार बन्धु में ही प्रकाशित ‘भारत की दशा’ नामक आपकी एक कविता उस समय बड़ी ही लोकप्रिय हुई थी-‘जहाँ मन्दिर थे खड़े वाँ हैं काँटे उपजे।/बस्तियाँ बस गयीं शृगाल खर और शूकर से।।/याँ के लोगों कि दशा कैसी थी क्या कोई कहे।/लेखनी का हिया फट जाय जो लिखने बैठे।।/आठ पख उनका असह दुख देख घटा रोती है।/सूय्र्य की तापग्रसित छिन्न छटा होती है।।’
लक्ष्मीनारायण सिंह (जन्म: सन् 1877 ई. के आसपास) ने पहले ब्रजभाषा में काव्य-रचना शुरू की। बाद में खड़ी बोली में लिखना प्रारंभ किया। आपकी खड़ी बोली की कविताएं प्रायः बिहार बन्धु में प्रकाशित हुआ करती थीं। आपकी कविताएं देखकर श्री अयोध्या प्रसाद खत्री ने आपके लिए पुरस्कार घोषित किया था। उन्होंने अपनी पुस्तक में पण्डित-स्टाइल वाले पद्य का उदाहरण भी आपके पद्य-संग्रह से दिया है-‘हाय! पीड़ित न रहे, जी मेरा किस भाँत निदान/हृदया जाय दरद क्यों न निकलने पै हो प्रान।/शोक सागर में भला डूब न क्यों लुप्त हो ज्ञान,/मित्र बैरी पड़े बूझ, अपना पराया अनजान।/देश की हो य’ दशा और य’ गत लोगों की,/बिना संदेह है, मारी गई मत लोगों की। हाय छन बिसरता है तेरा दुख मन से,/ले गया कौन बदल सोने के घर को बन से।/किस लुटेरे को हुआ राज तेरे अन धन से,/कौन सा रोग गया, तुझमें समा यों सन से।/आय्र्यावत्र्त! तू क्यों करती है, दिन रात विलाप,/कौन से क्रूर हृदय ने, य’, दिया है सन्ताप।।’ आपकी दूसरी कविता कुछ इस तरह है-‘दुर्दशा, तेरी है, जब ध्यान में आती इकबार,/आँसु आँखों में उमड़ आता है, बंध जाता है तार।/सोंच यों व्यग्र, है करता कि न रहता है विचार,/सर्वथा जी विसर जाता है जग का व्यवहार।।/सोना स्वप्न होता है अच्छा नहिं अन लगता है,/शोक की आग से भस्म होने बदन लगता है।।’ आपने गोल्डस्मिथ-कृत प्रसिद्ध अंग्रेजी पुस्तक हरमिट का पद्यानुवाद सुन्दर खड़ी बोली में किया था, जिसकी खूब चर्चा हुई।
खड़ी बोली मंडल के सबसे महत्त्वपूर्ण और प्रतिभाशाली कवि पटना निवासी महेशनारायण हुए जो श्रीधर पाठक के समकालीन कहे जाते हैं। आपको ‘राष्ट्रभारती के प्रथम महाकवि’ की संज्ञा दी गई। कहते हैं, भारतेन्दु बाबू ने जिस समय खड़ी बोली में काव्यरचना की असमर्थता प्रदर्शित की थी, उसी समय आपने यह सिद्ध कर दिया कि उक्त भाषा भी काव्य रचना के लिए सक्षम है। आज हिन्दी काव्यधारा में जितने ‘वाद’ दीख पड़ते हैं, प्रायः उन सभी के बीज आपकी रचनाओं में प्राप्य हैं। महाप्राण निराला के जन्म के पूर्व आपने मुक्तछंद की दिशा में अभूतपूर्व प्रयोग किये थे। महेशनारायण की कविता 1878 के बिहार बन्धु में मिली है-‘मुख मलीन मृगलोचन शुष्क/शशि की कला में बहार नहीं थी/लब दबे जौवन उभरे/रति की छटा रलार नहीं थी/गरब, सहब, अफसोस, उम्मीद/प्रेमप्रकाश, भय चंचल चित्त/थे यह सब रुख पर नुमायाँ उसके/कभी यह कभी वह कभी वह कभी यह/मुखचन्द्र निहार, हो यह विचार/कि प्रेम करूँ, दया दिखलाऊं?’’
‘स्वप्न’ 32 भागों में बंटी और 25 पृष्ठों में फैली अपेक्षाकृत बड़ी कविता है। इसका धारावाहिक प्रकाशन 13 अक्तूबर, 1881 ई. से शुरू होकर 20 अक्तूबर, 27 अक्तूबर, 3 नवंबर, 10 नवंबर, 17 नवंबर, 1 दिसंबर और 15 दिसंबर तक के बिहार बन्धु में हुआ। कुछ ने कविता पर बंगला का प्रभाव सिद्ध किया तो कुछ ने इसे वडर्सवर्थ की ‘ओड आॅन इमोर्टेलिटी’ के छंद में रचित बताया। यह कविता काव्य-वस्तु, संवेदना और शिल्प तीनों स्तर पर तत्कालीन कविताओं से भिन्न है। ‘स्वप्न’ कविता को खड़ी बोली, स्वत्व की चेतना, पराधीनता के बोध, स्वाधीनता की आकांक्षा, राजनीतिक-सामाजिक यथार्थ की पहचान, शिल्प के स्तर पर नवीनता की कसौटियों पर कसने के बाद कहा जा सकता है कि यह खड़ी बोली हिंदी की पहली आधुनिक कविता है।
खत्री जी ने इसे मुंशी स्टाइल के अंतर्गत रखा है और उनका कहना है कि बाबू महेशनारायण ने ‘स्वप्न’ निराले छंद में लिखा है। कहना होगा कि 19वीं शती में खड़ी बोली में इतनी लंबी कविता और किसी ने नहीं लिखी है। महेशनारायण की लंबी कविता ‘स्वप्न’ शिल्प-विधान में भी अनूठी है। इसमें अतुकांत छंदों का प्रयोग है। साथ ही, मुक्त छंद का भी प्रथम प्रयोग इसी कविता में हुआ है। निराला ने जिस मुक्त छंद को स्थापित किया उस ‘मुक्त छंद’ में विरचित यह पहली कविता है। डॉ. आनन्द नारायण शर्मा ने भी इस कविता को मुक्तछंद की प्रथम हिन्दी रचना मानते हुये स्पष्ट लिखा है-‘लेकिन अब यह विश्वासपूर्वक कहा जा सकता है कि कम से कम मुक्त छद के प्रवर्तन का श्रेय निराला को नहीं है। वह उनके जन्म से भी पहले हिन्दी में महेश नारायण की ‘स्वप्न’ शीर्षक कविता के माध्यम से आ चुका था।
वस्तु और शिल्प दोनों स्तरों पर यह बहुआयामी कविता है। इतनी लंबी दूसरी कोई कविता 19वीं सदी में प्रकाशित नहीं हुई। ‘स्वप्न’ में राष्ट्रीय चेतना के यथार्थवादी स्वर मुखरित होते हैं। कुछ पंक्तियां देखी जा सकती हैं: ‘क्या है यह अहा हिंद की जमीन ?/होगी तो जरूर यह स्वाधीन,/चन्द्रलोक से आई हूँ मैं जहाँ/अधीनता की है बड़ी ही बड़ाई।/राजा तो यहाँ यहीं के होंगे/वाँ तो हैं बिदेशी राज करते।/
अंग्रेजों की देखादेखी प्रेम विवाह को जाति-पांति, कुलीनता, संपत्ति या कुंडली के आधार पर होनेवाले अनमेल विवाहों जैसे वृद्ध विवाह और बाल विवाह से अधिक अच्छा समझा जाने लगा था। ‘स्वप्न’ में एक सोलहवर्षीय युवती किसी युवक के स्वर्गीय प्रेम से अपने निर्दय मां-बाप के द्वारा वंचित कर दी जाती है और उसकी शादी एक अस्सीवर्षीय वृद्ध से कर दी जाती है। लेखक का यह ‘स्वप्न’ हमारे जड़-समाज पर एक तीखा और प्रभावशाली व्यंग्य है। युवती बिलखती हुई अपनी कहानी संक्षेप में सुनाती है-‘हाय शादी हुई थी/बेहोश जब मैं थी/मैं सोलह बरस की/वह अस्सी बरस के/देख इनको मैं रोती/देख हमको वह हंसते।’ आगे-‘क्या करो मुझे प्यार करो माता ने बनाया है तुमको हमारी/मैं हूं अमीर मर जाऊंगा, जब तब दौलत होगी हमारी तुम्हारी/मर ही गये वह बिचारे उसी दिन हो गई मैं विधवा कुमारी।/माता मेरी संतुष्ट हुई और घर लाई वह दौलत सारी।।’
पंडित बिहारीलाल चैबे ने पौराणिक आख्यानों को लेकर खड़ी बोली में काव्य रचा। उनका काव्य भी खड़ी बोली का भक्तिपरक काव्य है। 7 जून, 1888 ई. में बिहार बन्धु में प्रकाशित ‘परमेश्वर के दश अवतार’ और सन् 1900 ई. में बिहार बन्धु में ही धारावाहिक रूप से प्रकाशित इनकी ‘काशी वासाष्टकं’ भी भक्तिपरक खड़ी बोली की कविता है। चैबे जी की कविता में भक्त कवियों-सा आत्मनिवेदन और समर्पण दिखता है। डा. रामनिरंजन परिमलेंदु लिखते हैं-‘‘बिहारीलाल चैबे की ‘नरसिंह अवतार’, ‘वामनावतार’, ‘परशुरामावतार’ कविताएं भाषा की दृष्टि से विलक्षण हैं। एक ही कविता में ब्रजभाषा और खड़ी बोली का सफल व्यवहार किया गया है। स्थिति विशेष का संदर्भ देकर ब्रजभाषा का प्रयोग किया गया है। कविता खड़ी बोली में है। खड़ी बोली गद्य का प्रयोग भी कविता में किया गया है। यह मिश्रित कविता है।’’ उनकी कविता ‘नरसिंह अवतार’ से खड़ी बोली में रचित कविता का एक उदाहरण है: ‘जल थल अचल शिखर अग्नि में देख हरी ने बचाया है।/अस्त्र शस्त्र पुनि हलाहल से मारण मंत्र हटाया है।/ऐसा करम किया नहीं मैंने जाते यो फल पाया है।/निश्चय मेरे प्रभु विष्णु को दीन त्राण मन भाया है।’
पटना के टेकनारायण प्रसाद ‘मंगल कवि’ की कविता ‘बिहार विभव’ का प्रथम प्रकाशन अक्टूबर-नवंबर सन् 1894 ई. में बिहार बन्धु में ‘बिहार प्रदेश का वर्णन’ शीर्षक से हुआ। इसके कवि का नाम मात्र टेकनारायण दिया हुआ है। इस कविता का पुस्तकाकार प्रकाशन सन् 1895 ई. में पटना सिटी के राजनीति-प्रेस से ‘बिहार विभव’ के नाम से हुआ। ठीक दो साल बाद अर्थात् 1897 ई. में बिहार बन्धु प्रेस से ‘फाग-बहार’ पुस्तक छपी। ‘बिहार-विभव’ में कवि का नाम टेकनारायण प्रसाद ‘मंगल कवि’ है। इसके अतिरिक्त पाठ संशोधन भी कहीं कहीं किया गया है। ‘बिहार विभव’ प्रादेशिक गरिमा की कविता है। इसमें बिहार के प्राचीन गौरव का प्रकाशन हुआ है। प्रदेशीय गौरव मूलतः राष्ट्रीय गौरव का ही एक रूप होता है। पौराणिक, ऐतिहासिक और सांस्कृतिक तथ्यों के सुविस्तृत आयामों से यह कविता समृद्ध है। कवि ने इस कविता में बिहार प्रदेश के गौरवपूर्ण अतीत के सभी आयामों को उद्घाटित किया है। बिहार के अतीत का गौरव-गान करती यह संभवतः पहली कविता है। ‘बिहार विभव’ के उद्येश्य के संबंध में कवि ने यह स्पष्ट घोषणा की है-‘बिहार विभव लिखने का प्रधान उद्येश्य यह है कि और देश के निवासी लोग अपने देश के प्राचीन गौरव को जानकर देश की उन्नति के लिए कटिबद्ध हों और प्राचीन समय में बिहार देश क्या था और अब क्या हो गया, इस विषय की प्रगाढ़ चिंता का आविर्भाव बिहारियों के मन में हो जाये।’ ‘बिहार विभव’ कविता में प्राचीन गौरव-बोध, देशोन्नत्ति, राष्ट्रीय जागरण और राष्ट्र की चिंता आदि का प्रकाशन हुआ है। इस कविता के विभिन्न संदर्भ-स्रोतों के स्पष्टीकरण के लिए कवि ने पाद-टिप्पणियों का प्रयोग किया है। पाद-टिप्पणियों का प्रयोग खड़ी बोली कविता के इतिहास में पहली बार हुआ है। इस कविता में 83 पाद-टिप्पणियों का उपयोग कवि ने किया है। इस कविता के आरंभ में कवि का कथन है-‘धर्म कर्म मर्याद और बल का जिसके सब गुण गावे।/बड़ा देश है बिहार प्यारे! सब देश इसको सिर नावे।/…इसी देश में बसे पहले सांख्य का प्रादुर्भाव हुआ,/वेदांत का भी, ज्ञानियों के हित प्रस्तुत नाव हुआ।/…पूर्व पुरुष तारन के खातिर यही विख्यात मही,/सब के पुरुषे, तरें तुरत जो पिंड पुत्र दे आय यहीं।/इसके पुरषा कोई का उद्धार नर्क से नहिं पावे,/बड़े गौरव का, बिहार है यह सब देश इसको सिरनावे।’ इसमें कवि बिहार का भौगोलिक दिशा-निर्देश करने के पश्चात् विभिन्न विस्मृत अथवा ज्ञात प्रकाश बिंदुओं में बिहार के विभिन्न गौरवपूर्ण आयामों का स्पर्श करता है। यहां कवि का अतीत-चिंतन लोक जागरण के लिए हुआ है। स्वर्णिम अतीत के पुनः स्मरण के द्वारा वह बिहारियों में स्वत्व की चेतना जगाना चाहता है। बिहारी सब ओर से हीन माने जाते थे, ऐसी दशा में कवि ने अतीत से शक्ति संचित करके वर्तमान को सृजित करने की आस्था दिखायी है।
खड़ी बोली के इन आरंभिक कवियों के अलावे भी लोग थे जो ‘बिहार बन्धु’ अखबार एवं प्रेस से जुड़कर हिन्दी भाषा-साहित्य को अपने तरीके से समृद्ध कर रहे थे। पटना जिले के तारणपुर निवासी एवं खड्गविलास प्रेस के संस्थापक बाबू रामदीन सिंह के सहपाठी रामचरित्र सिंह (जन्म : 1858 ई.) ‘बिहार बन्धु’ में नियमित लिखा करते थे। सन् 1880 ई. में उनकी ‘नृपवंशावली’ का प्रकाशन बिहार बन्धु प्रेस से हुआ। यह चैबीस पृष्ठों की पुस्तिका है, जिसमें मतिराम कविकृत ‘नृपवंशावली’, ‘अमात्रिक छन्द-दीपिका’ और ‘गंगा-स्तवन’ के छन्दों का संकलन है। ‘नृपवंशावली’ में क्षत्रिय वंशों का संक्षिप्त इतिहास छन्दोबद्ध वर्णित एवं संकलित है। इसमें छः अध्याय और 182 दोहे हैं। ‘अमात्रिक छन्द-दीपिका’ 15 छन्दों की रचना है। यह किस कवि की रचना है, इसका उल्लेख नहीं किया गया है। ‘गंगा-स्तव’ संस्कृत रचना है, जिसमें 22 अनुष्टुप छन्दों में गंगा की स्तुति की गई है। यह रचना संस्कृत कवि रामनन्दन मयूर की है।
हिन्दी भाषा और खड़ी बोली हिन्दी के विकास के लिए बिहार बन्धु द्वारा किये गये प्रयास काफी मूल्यवान हैं। डॉ. आनन्द नारायण शर्मा ने बिहार बन्धु के ऐतिहासिक अवदानों को रेखांकित करते हुए लिखा है-‘इसने बिहार में आने के कुछ दिनों बाद कचहरियों में उर्दू के साथ हिन्दी को स्थान दिलाने के लिये आन्दोलन किया, जिसके परिणामस्वरूप 1 जनवरी, 1881 ई. को न्यायिक कार्यों में फारसी के साथ नागरी लिपि के प्रयोग की घोषणा हुई। दरअसल, हिन्दी भाषा या नागरी लिपि जनचेतना का प्रतीक थी और इनकी स्वीकृति का अर्थ था प्रशासन द्वारा लोकचेतना का सम्मान।’ बिहार बन्धु का यह कार्य व्यापक राष्ट्रीय आन्दोलन ही का अंग था।