अरूणिमा सिंह
प्रायमरी स्कूल में प्राथमिक शिक्षा में इस तख्ती का सबसे बड़ा रोल होता था। घर में रात में जिस आले में ढेबरी जलाकर रखी जाती थी उसके उपर काफी मात्रा में कालिख जमा हो जाती थी।उस कालिख को एक डब्बी में घोलकर उसमें सूती कपड़ा डाल देते थे। हमारे स्कूल वाले बस्ते में वो कालिख वाली डब्बी, इंजेक्शन वाली दवाई की खाली कांच की शीशी में घोली खड़िया मिट्टी वाली दावात, सेंठा या नरकट की बनी कलम,बैठने के लिए यूरिया खाद का बोरा, टॉनिक वाली खाली बोतल में पीने वाला पानी, कुछ खड़िया मिट्टी जिसे हम सब दुद्धी कहते थे उसके टुकड़े हुआ करते थे। हमारा बस्ता भी खाद के बोरे को ही कटवा कर दर्जी से सिलवाया झोला ही होता था। सुबह सुबह कालिख वाली डब्बी से सूती कपड़े में कालिख डूबो कर तख्ती काली करते और फिर धूप में सुखाते तब बस्ते में रख कर स्कूल ले जाते।
जब तक छोटी गोल में थे तब तक पंडी जी सूखी खड़िया मिट्टी से तख्ती के एक तरफ़ छोटा अ बड़ा आ और दूसरी तरफ गिनती लिख देते थे और हम उस सूखी खड़िया मिट्टी से लिखे अक्षरों पर अपनी सेंठा वाली कलम को दवात में डूबो डूबो कर दुबारा लिखते। जिस दिन अ से लेकर ज्ञ तक वर्णमाला और सौ तक गिनती लिखकर दिखा देते थे उसी दिन से छोटी गोल से बड़ी गोल में आ जाते थे यानि एक कक्षा आगे बढ़ जाते थे। तब हमारे पढाई में भी बढ़ोत्तरी हो जाती थी। तख्ती को काली करके सुखाते फिर दवात से घोटार कर चिकना करते और कथरी सिलने वाले मोटे धागे को दवात की खड़िया मिट्टी में डूबो कर तख्ती में लाइन बनाते फिर पाठ लिखते थे। कभी कभी जल्दबाजी में जब तख्ती घर से काली करके नहीं ला पाते थे तब स्कूल परिसर में उगी पालक जैसे पत्तो वाली घास उखाड़ कर उससे तख्ती काली कर लिया करते थे।तख्ती हमारे पढ़ने, आगे बढ़ने और जरूरत पड़ने पर हथियार बनकर लड़ने के भी काम आती थी।