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राजनीति

क्षेत्रीय दल की संकुचित विचारधारा देश के विकास में बाधक

यह देश विभिन्न भाषाओं, संस्कृति व क्षेत्रिय समस्याओं का है और जिनकी समस्याओं को समझना व उनको हल वही राजनीतिक पार्टी कर सकती हैं जिसकी पहचान व पहुँच पूरे देश में हो । विदेश निति, राष्ट्रीय सुरक्षा नीति, विदेशों से कूटनितिक संबंध व सबसे महत्वपूर्ण आर्थिक नीतियों व अर्थव्यवस्था पर क्षेत्रिय दलों की समझ व रूख हम सब जानते है । पूरे देश का सर्वांगीण विकास ही असली विकास होता है ।

 

आर के जैन
1996 के आम चुनावों में कांग्रेस को 140 सीटें मिली थी और बीजेपी को 161 । किसी भी दल को स्पष्ट बहुमत नहीं मिला था । कांग्रेस व लेफ़्ट फ़्रंट के बाह्य समर्थन से क्षेत्रिय दलों के गठबंधन ने केंद्र में सरकार बनाई थी और अंधे के हाथ बटेर लगने वाली कहावत को चरितार्थ करते हुऐ कर्नाटक के जनता दल के तत्कालीन मुख्यमंत्री श्री एचडी दैवगौडा साहब देश के प्रधानमंत्री बन गये थे । उस समय तक दैवगौडा साहब को देश की जनता बहुत कम जानती थी । दैवगौडा साहब का प्रधानमंत्री बनने के पीछे का सबसे बड़ा कारण यह था कि अन्य दलों के बड़े नेता एक दूसरे की टाँग खींचने में लगे हुऐ थे और किसी भी नाम पर सहमति नहीं बन पा रही थी । पश्चिम बंगाल के तत्कालीन मुख्यमंत्री श्री ज्योति बसु को तो खुद उनकी पार्टी ने ही प्रधानमंत्री बनने नहीं दिया था जिसपर बाद में ज्योति बसु ने इसे हिमालयन बलंडर ( Himalayan blunders) कहा था ।

1996 में एक क्षेत्रीय दल के नेता का संयोग वश प्रधानमंत्री बनना इस देश की राजनीति में एक बड़ा परिवर्तनकारी रहा है । इसके बाद से लगभग हर राज्य के क्षेत्रीय दलों की अभिलाषा कुलाँचे भरने लगी है और इन सबके नेताओं को लगता है कि जब दैवगौडा साहब प्रधानमंत्री बन सकते थे तो वह क्यों नहीं बन सकते । अब तमाम छोटे दल थर्ड फ़्रंट बनाने की क़वायद में लगे हुऐ है की शायद एक बार फिर बिल्ली के भाग्य से छींका टूट जाये और कांग्रेस को बहुमत न मिल सके ताकि बीजेपी को सत्ता से बाहर रखने की मजबूरी मे वह उनके थर्ड फ़्रंट को समर्थन देकर किसी केसी आर, ममता बनर्जी, अरविंद केजरीवाल, दैवगौडा, नीतिश कुमार या किसी लेफ़्ट फ़्रंट के नेता को प्रधानमंत्री बनवा दे । इन क्षेत्रिय दलों की राष्ट्रीय मुद्दों पर न तो कोई नीति है और न ही उसकी समझ है । क्षेत्रिय भावनाओं, जातिगत समीकरणों के आधार पर ये दल लोक सभा की सीटें तो जीत जाते है पर जहॉ तक राष्ट्रीय राजनीति में इनके प्रभावी होने का सवाल है तो उसमें एक या दो सांसदों के अलावा सब प्रभाव हीन व निर्लिप्त रहते है ।

मेरा यह मानना है कि क्षेत्रीय दलों की बढ़ती संख्या अब राष्ट्रीय राजनीति के लिए ख़तरनाक होती जा रही हैं क्योंकि इनकी संकुचित विचारधारा देश के विकास के रास्ते में बाधक है । यह देश विभिन्न भाषाओं, संस्कृति व क्षेत्रिय समस्याओं का है और जिनकी समस्याओं को समझना व उनको हल वही राजनीतिक पार्टी कर सकती हैं जिसकी पहचान व पहुँच पूरे देश में हो । विदेश निति, राष्ट्रीय सुरक्षा नीति, विदेशों से कूटनितिक संबंध व सबसे महत्वपूर्ण आर्थिक नीतियों व अर्थव्यवस्था पर क्षेत्रिय दलों की समझ व रूख हम सब जानते है । पूरे देश का सर्वांगीण विकास ही असली विकास होता है ।

मेरा इस लेख के माध्यम से सिर्फ़ यह कहना है कि थर्ड फ़्रंट, हो या कोई और गठबंधन राष्ट्रीय राजनीति में यह सब अप्रासंगिक पहले ही हो चुके हैं ।1977, 1989 और 1996 मे इनकी सरकारों का हश्र हम देख चुके है और सिर्फ़ सत्ता की लालसा ही इन छोटे दलों को तमाम वैचारिक मतभेदों के बावजूद थर्ड फ़्रंट बनाने के लिए एक मंच पर इकट्ठा होने के लिये मजबूर कर रही है ।जबकि ये जानते है कि बिना कांग्रेस के समर्थन के कोई भी मोर्चा सत्ता में नहीं आ सकता । कांग्रेस ने जो गलती 1996 मे कर अपने हाथ जलाये थे वह गलती कांग्रेस अब पुनः करेगी ऐसी उम्मीद मुझे तो नही है । यह भी उल्लेखनीय हैं कि 1996 के प्रयोग के बाद से क्षेत्रीय दलों की बाढ़ सी आ गई है और यह सभी दल कांग्रेस के विरोध में ही बने हैं ।

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