वर्षा मिर्जा
शरद पवार अपनी सियासत की अलग-अलग परिभाषाएं देते रहते हैं,यह सभी लोग जानते हैं लेकिन कोई अपनी ही पार्टी को यूं पीछे धकेल सकता है- यह कुछ अटपटा सा है। आख़िर ऐसे भ्रम से भरे संकेत महाराष्ट्र की जनता को क्योंकर मिल रहे हैं? शरद पवार की पार्टी राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (एनसीपी ) में बीते वक्त से या यूं कहें कि चार साल से जो कुछ हो रहा है वह पार्टी की साख को तो कम कर ही रहा है, अवसरवादी राजनीति को भी खूब बढ़ावा दे रहा है। शायद अकेले पवार को ज़िम्मेदार ठहराना सही नहीं होगा, कोई और भी है जिसके लिए राज्य की सियासत केवल एक खिलौना है जिसके साथ कभी तो वह खेलता है और कभी उस खिलौने को तोड़ देना चाहता है। क्या महाराष्ट्र की जनता के पास इस तोड़-फोड़ का पूरा हिसाब है? दलों को जरूर नफ़े-नुक़सान का आभास हो गया है और इसीलिए यह बेक़रारी और उथल-पुथल है। यही वजह है कि कभी मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे की कुर्सी जाने की बात की जाती है तो कभी उप मुख्यमंत्री देवेंद्र फड़नवीस के सीएम बनने की; और कभी पवार के भतीजे अजीत पवार की। शरद पवार की बेटी सांसद सुप्रिया सुले 15 दिनों के भीतर धमाकों की बात करती हैं तो खुद पवार न केवल अडानी को लेकर विपक्ष की जेपीसी की मांग को गैर जरूरी बता देते हैं बल्कि आने वाले समय में उनके द्वारा महाविकास अघाड़ी के किसी कार्यक्रम को संबोधित न करने की बात भी सामने आती है। क्या शरद पवार की पार्टी शिवसेना की तरह दो फाड़ होने वाली है? क्या वह एकनाथ शिंदे को खोखो खेल की तरह ’खो’ देकर अब खुद सीएम पद पर आना चाहती है? 2019 के विधानसभा चुनावों के बाद महाराष्ट्र की सियासत में जो कुछ हुआ है उसमें जनता बहुत पीछे रह गई दिखाई पड़ती है और नेता बहुत आगे। पाला बदलते हुए, गिराते हुए। अगर जो महाराष्ट्र जैसी राजनीति के दृश्य देखने के लिए ही उसका पड़ोसी राज्य कर्नाटक अगले पखवाड़े वोट देने जा रहा हैं तो फिर अफ़सोस कि ऐसे जो चुनाव हैं तो आखिरकार क्यों हैं? अफसोस इस बात का भी किया जाना चाहिए कि भाजपा, जिसकी नवी मुंबई की रैली में 14 लोग लू का शिकार होकर मौत के मुंह में चले जाते हैं, उनके लिए क्या जनता भी आकड़ों से ज़्यादा कुछ नहीं है?
संजय राउत के मुताबिक एकनाथ शिंदे की शिवसेना का ‘डेथ वारंट’ जारी हो चुका है। हो सकता है कि उनका यह बयान सुप्रीम कोर्ट के आने वाले फैसले की वजह से आया हो। पांच जजों की खंडपीठ ने एकनाथ शिंदे और उद्धव ठाकरे की लड़ाई का निर्णय अभी सुरक्षित रखा है और ज्यों ही एकनाथ शिंदे के सोलह विधायक अयोग्य घोषित हो जाएंगे, सरकार पर तो कोई खतरा नहीं होगा परन्तु एकनाथ शिंदे को सीएम की कुर्सी छोड़नी पड़ेगी। बस इसी खाली कुर्सी की उम्मीद में महारष्ट्र की सियासत में उछल-कूद मची है। यह कूद-फांद 2019 के विधानसभा चुनावों के बाद से ही चल रही है। यही लग रहा था कि शिवसेना और भाजपा मिलकर सरकार बनाएंगे। ढाई-ढाई साल तक दोनों सीएम पद पर रहेंगे लेकिन भारतीय जनता पार्टी को बात जमी नहीं। अजीत पवार ने अपनी पार्टी से टूटकर सुबह-सुबह देवेंद्र फडणवीस के साथ मिलकर शपथ ले ली। इस बीच भ्रष्टाचार के कुछ केस भी अजित पवार पर से वापस ले लिए गए लेकिन चाचा शरद पवार मनाकर भतीजे को वापस पार्टी में ले आए। एनसीपी टूटते-टूटते बच गई और महाविकास अघाड़ी का गठबंधन अस्तित्व में आया। महाविकास अघाड़ी एनसीपी, शिवसेना और कांग्रेस का गठबंधन है जिसके चलने की किसी को कोई उम्मीद नहीं थी। भारतीय जनता पार्टी को तो बिलकुल भी नहीं। भाजपा ने इसे ‘अनहोली अलायन्स’ (अपवित्र गठबंधन) कहा था लेकिन जाने कैसे यह पवित्र गठजोड़ में बदलकर चलने लगा। वह शांति से इसके टूटने की राह देखने लगी। शांति कुंडली से मेल नहीं खाती फिर भी बहुत इंतज़ार किया गया। अमूमन इंतज़ार की इंतहा मिलन के लिए होती है, यहां टूटने के लिए थी। जब ऐसा नहीं हुआ और सरकार भी चल निकली तो भाजपा इस कदर असुरक्षित हो गई कि उसने शिवसेना को तोड़कर उसके एक विधायक एकनाथ शिंदे को मुख्यमंत्री बना दिया और खुद के पूर्व मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस को डिप्टी सीएम बनाकर सरकार हथिया ली। सब जानते हैं कि पहले सूरत और फिर गुवाहाटी में विधायकों को एकत्र किया गया। केंद्रीय जांच एजेंसियों का दबाव भी दर्जन भर विधायकों पर था। इस बार कमान एकनाथ शिंदे ने संभाली थी। फडणवीस के अच्छे मित्र और तमाम बड़े मंत्रालयों के मुखिया होने के बावजूद ईडी, सीबीआई से इम्यून रहे थे शिंदे। उन्होंने साफ कहा है कि भाजपा के हिंदुत्व के साथ ही सरकार बनाएंग। कांग्रेस व एनसीपी उन्हें बिलकुल मंजूर नहीं। पूर्व मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे सरकारी आवास वर्षा को छोड़ निजी निवास मातोश्री में चले गए हैं- वही निवास जहां से बालासाहेब ठाकरे की सियासत चलती थी। गौरतलब है कि सुनवाई में सुप्रीम कोर्ट ने इसी जाने को यानी उद्धव ठाकरे के पद छोड़ने पर आश्चर्य व्यक्त किया था और कहा था कि उन्हें विधानसभा के पटल पर बहुमत साबित करना चाहिए था।
अब यही एकनाथ शिंदे भाजपा को खटक रहे हैं। वे सातारा में छुट्टियां बिताने चले जाते हैं। अगर जो सुप्रीम कोर्ट शिंदे समेत 16 विधायकों को अयोग्य ठहरा देता है तो उन्हें शिंदे से मुक्त होने में आसानी होगी, जबकि इन्हीं शिंदे के गुट को शिवसेना का नाम और पार्टी चिन्ह सब कुछ चुनाव आयोग दे चुका है। अब तक झगड़ने वाली पार्टियों के चुनाव चिन्ह को सीज़ कर दिया जाता रहा है। खटकने की एक वजह यह भी है कि भाजपा को समझ में आ गया है कि इस सरकार की कोई लोकप्रियता जनता में नहीं बन पाई है। शिंदे वाली शिवसेना के प्रवक्ता ने भी कह दिया है कि अगर एनसीपी से टूटकर अजित पवार भाजपा की झोली में गिर जाते हैं तो वे छिटक जाएंगे। शरद पवार की एनसीपी में उनके अलावा उनकी बेटी सुप्रिया और भतीजे अजित पवार हैं। सुप्रिया राष्ट्रीय राजनीति का चमकता सितारा हैं तो भतीजा अजित राज्य की। वे महाराष्ट्र के सहकारिता संगठन में भी बड़ा दखल रखते हैं। संभव है कि एनसीपी इस हाल में अधिकतम मोल-भाव कर लेना चाहती है। अजित पवार ने पार्टी टूटने की अटकलों को अफवाह बताया है पर हो सकता है कि शरद पवार खुद जुट गए हों। अगले साल फिर विधानसभा चुनाव होंगे तब तक सत्ता में बने रहें और चुनाव से पहले फिर महाविकास अघाड़ी का हिस्सा बन जाएं। ऐसी सम्भावनाएं भी महाराष्ट्र के राजनीतिक विश्लेषक जाहिर कर रहे हैं लेकिन अजित पवार पहले भी ऐसा कर चुके हैं, इसलिए ऐसा नहीं लगता कि भाजपा दोबारा यह खतरा मोल लेगी। दूसरे प्रदेशों में महाविकास अघाड़ी गठबंधन की साख बनी हुई है और जनता मानती है कि उद्धव ठाकरे के साथ धोखा हुआ है। शिंदे गुट को ‘गद्दार’ कहने से भी जनता नहीं चूकती।
फिलहाल महाराष्ट्र की सियासत मुंबई लोकल ट्रेन के उस डिब्बे की तरह हो गई है जिसमें घमासान मचा हुआ है। चढ़ने -उतरने का खेल साफ़ बता रहा है कि दलों को सिर्फ सत्ता चाहिए। भाजपा की कोशिश महाराष्ट्र की कुर्सी बचाए रखने की तो है ही, निगाहें 2024 के लोकसभा चुनाव पर भी हैं। महाराष्ट्र में लोकसभा की 48 सीटें हैं और मौजूदा परिस्थितियां बता रहीं हैं कि टूटी हुई शिवसेना और भाजपा के अवसरवादी गठजोड़ की कोई साख जनता में नहीं रह गयी है। विनोद तावड़े समिति की रिपोर्ट ने भाजपा की चिंता और बढ़ा दी है। तीन सदस्यीय इस समिति ने भाजपा की हालत को राज्य में खस्ता बताया है। रिपोर्ट से परेशान केंद्रीय नेतृत्व ने भाजपा प्रदेशाध्यक्ष चंद्रशेखर बावनकुले और मुंबई भाजपा अध्यक्ष आशीष शेलार को दिल्ली भी तलब किया था। हालात ऐसे ही रहे तो लोकसभा व बृहन्मुंबई महानगर पालिका (बीएमसी) के चुनावों में भी भाजपा को झटका लग सकता है। नतीजतन भाजपा बेचैन तो है, तीन उपचुनावों में भी भारतीय जनता पार्टी को हार का सामना करना पड़ा है, उसकी व्यथा अलग से है। मुंबई की अंधेरी (पूर्व) विधानसभा सीट पर लोकसभा का उपचुनाव शिवसेना (उद्धव ठाकरे ) की प्रत्याशी ऋतुजा लटके ने 66 हज़ार से भी अधिक मतों से जीता था।
इस बीच शरद पवार और गौतम अडानी की मुलाकात भी हो गई है। इस मुलाकात ने बता दिया है कि आखिर क्यों पवार अडानी पर नरम पड़े थे, वह भी उस समय जब समूचा विपक्ष अडानी के खिलाफ संयुक्त संसदीय समिति (जेपीसी) की मांग कर सरकार को घेर रहा था। पवार ने यह कहकर कि सुप्रीम कोर्ट की जांच काफी है और वे जेपीसी को ज़रूरी नहीं मानते, विपक्ष के वार को कमज़ोर करने की कोशिश की थी। बाद में उन्होंने बात को सम्भालते हुए कहा कि वे भले ही इसे ज़रूरी नहीं मानते लेकिन विपक्ष की मांग का विरोध भी नहीं करेंगे। तृणमूल कांग्रेस की तेज तर्रार सांसद महुआ मोइत्रा ने कहा था कि जब तक सरकार गौतम अडानी के खिलाफ कोई एक्शन नहीं लेती तब तक किसी भी राजनेता को उनसे नहीं मिलना चाहिए। वे ट्वीट करती हैं- “मुझे मराठाओं से कोई डर नहीं लगता है। मैं उम्मीद करती हूँ कि वे पुराने रिश्तों से ज़्यादा देश को अहमियत देंगे। ऐसा कहकर मैं विपक्षी एकता को कमज़ोर नहीं कर रही हूं बल्कि जनता के हित की बात कर रही हूँ।” ज़ाहिर है कि महाराष्ट्र की राजनीति ने नया रास्ता ले लिया है। भाजपा किसी कीमत पर महाराष्ट्र की सत्ता खोना नहीं चाहती। सामाजिक कार्यकर्ता, इतिहासकार और शिक्षाविद काका कालेलकर अपने निबंध में लिखते हैं- ” दुनिया में असामाजिक,अनैतिक और अकल्याणकारी दो तत्व हैं- सत्ता और संपत्ति। इनके बिना मनुष्य चलता नहीं है लेकिन इनको बढ़ावा देना, इनके आधार पर राज्य चलाना, सबको इन दोनों का दास बनाना बहुत घातक होगा।” इन दिनों हम सब अधिकतम सत्ता व अधिकतम संपत्ति के प्रयोजन के शिकंजे में फंस गये हैं और इसे कम करने का मकसद भी हमारा ही होना चाहिए।

