मेराज नूरी
बिहार की राजनीति में जातिगत समीकरण हमेशा से एक महत्वपूर्ण कारक रहे हैं। कुशवाहा समाज, जो राज्य की आबादी का लगभग 4.27% हिस्सा है और 70 से अधिक विधानसभा सीटों व 15 लोकसभा सीटों पर प्रभाव रखता है, हाल के वर्षों में राजनीतिक दलों के लिए एक महत्वपूर्ण वोट बैंक बनकर उभरा है। 2024 के लोकसभा चुनाव और आगामी 2025 के विधानसभा चुनाव के संदर्भ में कुशवाहा समाज के नेताओं का राष्ट्रीय जनता दल (राजद) की ओर बढ़ता झुकाव बिहार की सियासत में एक नया मोड़ ला रहा है। इस लेख में हम इस बदलते राजनीतिक परिदृश्य का विश्लेषण करेंगे, जिसमें रेणु कुशवाहा, विजय कुशवाहा, राघवेंद्र कुशवाहा जैसे नेताओं के राजद में शामिल होने और इस प्रवृत्ति के जनता दल (यूनाइटेड) (जेडीयू) और राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) पर प्रभाव का विस्तृत अध्ययन करेंगे।
हाल ही में, बिहार की सियासत में एक महत्वपूर्ण घटनाक्रम देखने को मिला जब पूर्व मंत्री और खगड़िया से पूर्व सांसद रेणु कुशवाहा, उनके पति विजय कुशवाहा, जन अधिकार पार्टी (जाप) के पूर्व प्रदेश अध्यक्ष राघवेंद्र कुशवाहा, और युवा सोच पत्रिका के संपादक राजीव रंजन कोइरी ने राजद की सदस्यता ग्रहण की। यह घटना 25 जून 2025 को पटना में राजद के प्रदेश कार्यालय में आयोजित एक समारोह में हुई, जिसमें राजद नेता तेजस्वी यादव ने इन नेताओं का स्वागत किया। यह कदम राजद की उस रणनीति का हिस्सा है, जिसमें वह अपने पारंपरिक मुस्लिम-यादव (MY) समीकरण को विस्तार देते हुए कुशवाहा समाज को अपने साथ जोड़ने की कोशिश कर रहा है।
रेणु कुशवाहा, जो जेडीयू की वरिष्ठ नेता रही हैं और खगड़िया से सांसद व दो बार बिहार की मंत्री रह चुकी हैं, का राजद में शामिल होना एक बड़ा सियासी उलटफेर माना जा रहा है। उनके साथ विजय कुशवाहा, जो लोकसभा चुनाव में उम्मीदवार रह चुके हैं, और राघवेंद्र कुशवाहा, जो पप्पू यादव के करीबी सहयोगी माने जाते हैं, का राजद में जाना कुशवाहा समाज के नेताओं के बीच राजद के बढ़ते प्रभाव को दर्शाता है। सोशल मीडिया पर इस घटना की चर्चा जोरों पर रही, और कई विश्लेषकों का मानना है कि यह प्रवृत्ति आगे भी जारी रह सकती है, जिसमें नागमणि, सुचित्रा सिन्हा, निरंजन कुशवाहा, और पप्पू मनोरंजन कुशवाहा जैसे अन्य नेता भी राजद का दामन थाम सकते हैं।
2024 के लोकसभा चुनाव में राजद ने कुशवाहा समाज को लुभाने के लिए एक साहसिक रणनीति अपनाई थी। उसने कुशवाहा समाज से आने वाले सात उम्मीदवारों को टिकट दिया, जो 2019 की तुलना में दोगुना था। इस रणनीति का परिणाम भी देखने को मिला, जब अभय कुशवाहा जैसे नेताओं ने एनडीए के उम्मीदवारों को हराया। राजद ने अपने पारंपरिक MY समीकरण को ‘बाप’ (बहुजन, अगड़ा, आधी आबादी, गरीब) समीकरण में विस्तारित करने की कोशिश की, जिसमें कुशवाहा समाज को शामिल करना एक महत्वपूर्ण कदम था। इस रणनीति ने राजद को कुशवाहा वोटरों का एक बड़ा हिस्सा अपने पक्ष में करने में मदद की, जिसका नुकसान जेडीयू और भाजपा को उठाना पड़ा।
सीएसडीएस-लोकनीति के सर्वे के अनुसार, 2024 के लोकसभा चुनाव में लव-कुश (कुर्मी-कुशवाहा) समुदाय ने एनडीए को 67% वोट दिया, जो 2019 की तुलना में 12% कम था। यह कमी दर्शाती है कि कुशवाहा समाज का एक हिस्सा एनडीए से दूर हुआ, और इसका श्रेय राजद की रणनीति को दिया जा सकता है। तेजस्वी यादव ने कुशवाहा समाज को उचित प्रतिनिधित्व देने का वादा किया है, और रेणु कुशवाहा जैसे प्रभावशाली नेताओं को पार्टी में शामिल करके वह इस दिशा में मजबूती से कदम बढ़ा रहे हैं।
जेडीयू और एनडीए के लिए कुशवाहा समाज का राजद की ओर बढ़ता झुकाव एक खतरनाक संकेत है। बिहार की सियासत में ‘लव-कुश’ समीकरण (कुर्मी और कुशवाहा) लंबे समय से जेडीयू की ताकत रहा है, जिसमें नीतीश कुमार (कुर्मी) और उपेंद्र कुशवाहा (कुशवाहा) जैसे नेता इस समुदाय के प्रमुख चेहरों के रूप में उभरे हैं। हालांकि, हाल के वर्षों में इस समीकरण में दरारें दिखाई देने लगी हैं।
उपेंद्र कुशवाहा, जो राष्ट्रीय लोक मोर्चा (आरएलएम) के अध्यक्ष हैं और 2024 में एनडीए के उम्मीदवार के रूप में काराकाट से लोकसभा चुनाव लड़े, को सीपीआई (एमएल) के राजा राम सिंह के हाथों हार का सामना करना पड़ा। उनकी हार ने यह सवाल उठाया कि क्या कुशवाहा समाज पर उनकी पकड़ उतनी मजबूत है जितनी पहले मानी जाती थी। उपेंद्र कुशवाहा ने हाल ही में अपनी बिहार यात्रा शुरू की है, जिसका उद्देश्य कुशवाहा वोटरों की नाराजगी को दूर करना और एनडीए को मजबूत करना है। लेकिन उनकी यह यात्रा जेडीयू के भीतर कुछ असंतोष का कारण भी बनी है, क्योंकि इसे कुछ लोग एनडीए के भीतर अलगाव के रूप में देख रहे हैं।
दूसरी ओर, सम्राट चौधरी, जो बिहार भाजपा के अध्यक्ष और उपमुख्यमंत्री हैं, भी कुशवाहा समाज से आते हैं। लेकिन उनकी आक्रामक शैली और संगठनात्मक कौशल के बावजूद, उनमें वह स्वीकार्यता नहीं दिखती जो कभी नीतीश कुमार या उपेंद्र कुशवाहा के पास थी। विश्लेषकों का मानना है कि सम्राट चौधरी को कुशवाहा समाज का पूरा समर्थन हासिल करने में चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है, खासकर तब जब राजद कुशवाहा नेताओं को अपने पाले में खींचने में सफल हो रहा है।
कुशवाहा समाज बिहार की सियासत में एक निर्णायक भूमिका निभाता है। यह समुदाय न केवल अपनी आबादी के कारण, बल्कि ग्रामीण इलाकों में अति पिछड़ा वर्ग (ईबीसी) के साथ अपने जुड़ाव के कारण भी महत्वपूर्ण है। इस समुदाय की ताकत का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि यह 15 लोकसभा सीटों और 70 से अधिक विधानसभा सीटों के नतीजों को प्रभावित कर सकता है। राजद ने इस समुदाय की ताकत को पहचाना और अपनी रणनीति को उसी के अनुरूप ढाला।
लोकसभा चुनाव 2024 में राजद ने कुशवाहा समाज से छह उम्मीदवारों को मैदान में उतारा, जो एनडीए से अधिक था। इसके परिणामस्वरूप, राजद ने कुशवाहा वोटों का एक बड़ा हिस्सा हासिल किया, जिसने जेडीयू और भाजपा के लिए मुश्किलें खड़ी कीं। उदाहरण के लिए, जहानाबाद में जेडीयू के चंद्रेश्वर प्रसाद को राजद के सुरेंद्र यादव ने हराया, और पूर्णिया में निर्दलीय उम्मीदवार पप्पू यादव ने जेडीयू के संतोष कुशवाहा को पराजित किया।
राजद की यह रणनीति निश्चित रूप से अल्पकाल में प्रभावी रही है, लेकिन इसका दीर्घकालिक प्रभाव इस बात पर निर्भर करेगा कि वह कुशवाहा समाज को कितना प्रतिनिधित्व और सम्मान दे पाता है। रेणु कुशवाहा जैसे नेताओं का कहना है कि वे राजद के साथ मिलकर सामाजिक न्याय और बिहार के विकास के लिए काम करेंगे। लेकिन जेडीयू ने इसे ‘विश्वासघात’ करार दिया है, और यह संकेत दिया है कि कुशवाहा नेताओं की नाराजगी का कारण सीट बंटवारे में उचित सम्मान न मिलना हो सकता है।
दूसरी ओर, एनडीए के पास अभी भी नीतीश कुमार, उपेंद्र कुशवाहा, और सम्राट चौधरी जैसे नेता हैं, जो कुशवाहा और कुर्मी समाज को अपने साथ जोड़े रखने की कोशिश कर रहे हैं। नीतीश कुमार की विकास-केंद्रित छवि और उनकी लंबे समय से चली आ रही स्वीकार्यता अभी भी जेडीयू के लिए एक ताकत है। लेकिन यदि कुशवाहा समाज का एक बड़ा हिस्सा राजद की ओर खिसकता है, तो यह जेडीयू और एनडीए के लिए 2025 के विधानसभा चुनाव में एक बड़ी चुनौती साबित हो सकता है।
बिहार की सियासत में कुशवाहा समाज का बढ़ता महत्व और राजद की ओर इसका झुकाव एक नया राजनीतिक समीकरण बना रहा है। रेणु कुशवाहा, विजय कुशवाहा, और राघवेंद्र कुशवाहा जैसे नेताओं का राजद में शामिल होना इस बात का संकेत है कि कुशवाहा समाज जेडीयू और एनडीए से मोहभंग महसूस कर रहा है। राजद की रणनीति, जिसमें उसने कुशवाहा समाज को अधिक टिकट और प्रतिनिधित्व देने पर जोर दिया, ने उसे इस समुदाय के बीच लोकप्रियता दिलाई है।
हालांकि, एनडीए के पास अभी भी उपेंद्र कुशवाहा और सम्राट चौधरी जैसे नेता हैं, लेकिन उनकी स्वीकार्यता और प्रभाव पर सवाल उठ रहे हैं। यदि नागमणि, सुचित्रा सिन्हा, और निरंजन कुशवाहा जैसे अन्य नेता भी राजद में शामिल होते हैं, तो यह जेडीयू और एनडीए के लिए एक बड़ा झटका होगा। आगामी विधानसभा चुनाव में यह देखना दिलचस्प होगा कि क्या राजद अपनी इस रणनीति को और मजबूत कर पाता है, और क्या एनडीए कुशवाहा समाज को अपने साथ जोड़े रखने में सफल हो पाता है। बिहार की सियासत में कुशवाहा समाज का यह ‘काल’ निश्चित रूप से एक नया इतिहास रचने की ओर अग्रसर है।