पटना: भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी-लेनिनवादी) लिबरेशन के महासचिव दीपंकर भट्टाचार्य ने बिहार विधानसभा चुनाव 2025 के लिए पार्टी के रुख और गठबंधन की रणनीति पर विस्तृत बयान जारी किया है। उन्होंने कहा कि इस बार भाकपा (माले) ने पहले से बड़ा गठबंधन बनाने में सफलता हासिल की है, जिसमें कुछ अन्य पार्टियों की भागीदारी शामिल है। हालांकि, पार्टी कार्यकर्ताओं और शुभचिंतकों की अपेक्षा थी कि उम्मीदवारों की सूची में और जिलों से नाम शामिल होंगे, लेकिन सीटों की सीमित संख्या और गठबंधन की व्यवस्थाओं के कारण यह संभव नहीं हो सका।
भट्टाचार्य ने स्पष्ट किया कि पार्टी ने किसी भी सीट पर “मैत्रीपूर्ण संघर्ष” न करने का सिद्धांत अपनाया है। उन्होंने कांग्रेस, राजद और अन्य सहयोगी दलों से आग्रह किया कि वे सीट-बंटवारे के मुद्दों को सुलझाकर नाम वापसी की समय सीमा तक पूर्ण एकता सुनिश्चित करें। उन्होंने स्वीकार किया कि सीमित सीटों के कारण कई योग्य कॉमरेडों को मौका नहीं मिल सका, लेकिन उन्होंने कार्यकर्ताओं से खुले दिल से सभी प्रत्याशियों का समर्थन करने की अपील की।
उन्होंने जोर देकर कहा कि चुनाव सामूहिक संघर्ष का एक रूप है, जिसमें प्रत्याशी की सफलता सैकड़ों कार्यकर्ताओं के परिश्रम, हजारों नागरिकों की सद्भावना और मतदाताओं के समर्थन पर निर्भर करती है। भाकपा (माले) जैसी कम्युनिस्ट पार्टी के लिए हर संघर्ष दमन और उत्पीड़न के जोखिमों से भरा होता है, और चुनाव भी इसका अपवाद नहीं है।
भट्टाचार्य ने गोपालगंज की भोरे (अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित) सीट का उदाहरण देते हुए बताया कि पार्टी के प्रस्तावित उम्मीदवार जितेंद्र पासवान को नामांकन के बाद गिरफ्तार कर लिया गया। इसके चलते जेएनयू छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष धनंजय को परिस्थितिवश प्रत्याशी बनाया गया। उन्होंने कहा कि भोरे में यह लड़ाई राजनीतिक प्रतिशोध, राज्य दमन और सामंती-सांप्रदायिक हिंसा के खिलाफ न्याय की है।
उन्होंने बताया कि 1995 में भोरे से पार्टी के पहले उम्मीदवार उमेश पासवान को 16,000 वोट मिले थे, लेकिन दो साल बाद उनकी हत्या कर दी गई। 2020 में जितेंद्र पासवान को 70,000 से अधिक वोट मिले, लेकिन वे मात्र 400 वोटों से जीत से चूक गए। इसके बाद उन्हें एक फर्जी मामले में फंसाया गया, जिसके चलते उनकी चुनावी पात्रता खतरे में है।
भट्टाचार्य ने कहा कि भाकपा (माले) का चुनावी अभियान केवल सीटों के बंटवारे तक सीमित नहीं है, बल्कि यह दमन का मुकाबला करने और असमान लड़ाई में बाधाओं को पार करने का अभियान है। उन्होंने 1989 के जनसंहार, 2000 में अरवल में कॉमरेड शाह चांद पर टाडा के तहत कार्रवाई, 1998 में असम में कॉमरेड अनिल बरुआ की शहादत और 2005 में झारखंड में कॉमरेड महेंद्र सिंह की हत्या जैसे उदाहरणों का जिक्र करते हुए पार्टी की बलिदानी यात्रा को रेखांकित किया।
अंत में, भट्टाचार्य ने कार्यकर्ताओं और समर्थकों से शहीदों को याद करने और उनके अभियान को आगे बढ़ाने का आह्वान किया। उन्होंने नारा दिया, “संघर्ष किया है-जीते हैं, संघर्ष करेंगे-जीतेंगे!” यह बयान बिहार विधानसभा चुनाव में भाकपा (माले) के दृढ़ संकल्प और एकजुटता के संदेश को मजबूत करता है।