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बिहार:जातिगत राजनीति ही असली चुनावी जंग है

इस बार का विधानसभा चुनाव सत्तारूढ़ नीतीश कुमार और उनके गठबंधन के लिए तो मुश्किल भरा है ही, विपक्षी गठबंधन के लिए भी आसान नहीं है। कई नई राजनीतिक पार्टियों ने दोनों के खिलाफ मोर्चा खोल रखा है।ऐसे में घोषणाएँ और वादे तो ठीक हैं, लेकिन अगर जातीय समीकरण का ताना-बाना कमजोर पड़ जाए तो बेड़ा गर्क हो जाता है।

 

मेराज नूरी

बिहार विधानसभा चुनाव की सियासी सरगर्मियाँ चरम पर हैं। सत्तारूढ़ गठबंधन एनडीए और विपक्षी गठबंधन महागठबंधन सहित अन्य राजनीतिक दल अपने-अपने लुभावने वादों और घोषणाओं के साथ मतदाताओं को रिझाने में जुटे हैं। सत्तारूढ़ गठबंधन जहाँ जनकल्याण के कार्यों और योजनाओं के नाम पर सरकारी खजाने का उपयोग कर एक बार फिर जनता से सरकार बनाने में सहयोग की उम्मीद लगाए बैठा है, वहीं विपक्षी गठबंधन भी उसी सरकारी खजाने के उपयोग के ‘भविष्य के खाके’ पेश कर जनता को यह यकीन दिला रहा है कि अगर सरकार बनी तो यह होगा, वह होगा। सत्ता और विपक्ष के इन वादों और घोषणाओं पर भरोसा और यकीन का गेंद जनता के पाले में है।

 

इन सबके बीच बिहार की सियासत का एक अहम और अनिवार्य हिस्सा सभी को सोचने पर मजबूर कर रहा है, जिसके बिना न तो अतीत में कोई सरकार बनी है और न ही निकट भविष्य में बनती दिख रही है। वह है जातिआधारित सियासत। यही बिहार की राजनीति का अतीत रहा है, वर्तमान है और भविष्य भी। इसी आधार पर टिकट बँटवारे के साथ ही चर्चाएँ हो रही हैं, चालें चली जा रही हैं, सियासी नफा-नुकसान का विश्लेषण होने लगा है और नतीजों का अंदाजा लगाया जाने लगा है।

 

इससे पहले कि जाति आधारित सियासत के बिहार पर गहरे प्रभावों का जायजा लिया जाए, एक नजर सत्तारूढ़ और विपक्षी दलों के वादों और घोषणाओं पर डालना जरूरी है। रिपोर्ट्स के मुताबिक, वित्तीय वर्ष 2025-26 के लिए राज्य का कुल बजट 3.17 लाख करोड़ रुपये का है, जिसमें से 1.12 लाख करोड़ रुपये (एक तिहाई से अधिक) केवल वेतन और पेंशन पर खर्च हो जाता है। एनडीए सरकार की हालिया घोषणाओं (जिन्हें चुनावी रेवड़ी भी कहा जा सकता है) का अतिरिक्त बोझ करीब 40 हजार करोड़ रुपये का अनुमानित है, जो राज्य की सालाना आय (56 हजार करोड़ रुपये) के तीन-चौथाई के बराबर है। इनमें खास तौर पर अगस्त 2025 से 1 करोड़ 89 लाख उपभोक्ताओं को 125 यूनिट मुफ्त बिजली (सालाना लागत 5000 करोड़ रुपये), सामाजिक सुरक्षा पेंशन को 400 से बढ़ाकर 1100 रुपये मासिक करना (अतिरिक्त खर्च 9300 करोड़ रुपये), 18 से 25 साल के 12 लाख बेरोजगार युवाओं को 1000 रुपये मासिक भत्ता (बजट 1500 करोड़ रुपये), 16 लाख निर्माण मजदूरों को एकमुश्त 5000 रुपये कपड़ा भत्ता (बजट 800 करोड़ रुपये), जीविका, आंगनबाड़ी और आशा कार्यकर्ताओं के मानदेय में वृद्धि (बजट 100 करोड़ रुपये) और सबसे बड़ी और अहम योजना ‘मुख्यमंत्री महिला रोजगार योजना’ के तहत 1 करोड़ 21 लाख महिलाओं को प्रति व्यक्ति 10 हजार रुपये का हस्तांतरण (कुल 12100 करोड़ रुपये) शामिल हैं।

 

दूसरी ओर, बिहार में महागठबंधन का नेतृत्व कर रहे राजद नेता और पूर्व उपमुख्यमंत्री तेजस्वी यादव ने कई घोषणाओं के साथ एक खास वादा किया है कि अगर इस बार बिहार में उनकी सरकार बनी तो वे सत्ता में आने के 20 दिनों के भीतर एक नया कानून लाएँगे। यह कानून हर परिवार के एक सदस्य को सरकारी नौकरी की गारंटी देगा। 20 महीनों के भीतर सभी को नौकरी मिल जाएगी। जाहिर है, इस वादे को पूरा करने में बजट एक अहम मुद्दा है। मान लें कि प्रत्येक सरकारी कर्मचारी को औसतन 25,000 रुपये मासिक वेतन मिलेगा, तो ऐसी स्थिति में सरकार को 2 करोड़ 63 लाख कर्मचारियों के लिए सालाना करीब 7.88 लाख करोड़ रुपये खर्च करने होंगे, जबकि बिहार का मौजूदा सालाना बजट 3.17 लाख करोड़ रुपये है।

 

दरअसल, हाल के दिनों में यह चलन आम हुआ है कि जहाँ कहीं भी चुनाव होते हैं, वहाँ की सत्तारूढ़ पार्टी चुनावी प्रक्रिया शुरू होने से पहले तरह-तरह की सरकारी सौगातों की घोषणा करने लगती है। खास तौर पर मुफ्त की रेवड़ियाँ बाँटने का चलन आम हो गया है। बिहार में भी कुछ ऐसा ही नीतीश कुमार की सरकार द्वारा दोहराया गया। वहीं, विपक्ष ने भी बड़े-बड़े वादे किए हैं।

 

ये वे नीतियाँ हैं, जिनके जरिए सत्तारूढ़ और विपक्षी दल राज्य में सरकार बनाने का ताना-बाना बुनते दिख रहे हैं, लेकिन असली जंग जातिआधारित सियासत की है, जिससे कोई भी दल किनारा करने का जोखिम नहीं लेना चाहता। यही वजह है कि वादे और घोषणाएँ अपनी जगह हैं, लेकिन टिकट बँटवारे के साथ असली खेल शुरू हो चुका है। एनडीए और महागठबंधन ने मैदान मारने के लिए जिन चेहरों पर भरोसा जताया है, उन्हें केवल और केवल जातिगत समीकरणों के तराजू पर तौलकर ही टिकट थमाया गया है। यही बिहार की सियासत है, जिसे सभी ने ध्यान में रखा है और किसी भी दल ने इसे नजरअंदाज नहीं किया। क्योंकि ऐसा करना किसी भी पार्टी के लिए विनाशकारी साबित हो सकता था।

 

यह सच्चाई भी है कि बिहार की सियासत में जाति हमेशा से एक निर्णायक कारक रही है। राज्य की आबादी में विभिन्न जातियों का अनुपात चुनावी नतीजों को सीधे प्रभावित करता है। रिपोर्ट्स के मुताबिक, राज्य में ओबीसी (अन्य पिछड़ा वर्ग) मतदाताओं की संख्या सबसे अधिक (लगभग 51%) है। इसके बाद अनुसूचित जाति/जनजाति (लगभग 16%) और सामान्य वर्ग (लगभग 15%) हैं। मुस्लिम अल्पसंख्यक लगभग 17% हैं, जिनमें भी कई जातियाँ हैं। ऐसी स्थिति में टिकट बँटवारे में जातिगत संतुलन हर पार्टी की मजबूरी थी और उसने इसे प्राथमिकता देते हुए टिकटों का बँटवारा किया है।

 

उदाहरण के तौर पर, बीजेपी की सूची को देखें तो साफ होता है कि पार्टी ने जातिगत ताने-बाने को कितनी बारीकी से बुना है। इस सूची में आरक्षित सीटों पर अनुसूचित जाति के उम्मीदवार उतारे गए हैं। यह अनुसूचित जाति वोट बैंक को मजबूत करने की रणनीति है, जो बिहार में लगभग 16% मतदाताओं का प्रतिनिधित्व करता है। पार्टी ने परंपरागत रूप से बीजेपी का समर्थन करने वाली ऊँची जातियों को भी नजरअंदाज नहीं किया है। कई अहम चेहरे मैदान में हैं, जो इस वर्ग के वोटों को एकजुट करने की कोशिश को दर्शाते हैं। ओबीसी पर भी फोकस किया गया है, जो बिहार की आधी से अधिक आबादी को कवर करता है। यादव, कुर्मी, कोइरी और अन्य पिछड़ी जातियों को लुभाने की कोशिश की गई है, जो एनडीए के लिए अहम हैं।

 

नीतीश कुमार की पार्टी जेडीयू ने भी टिकट बँटवारे में सामाजिक और जातिगत संतुलन बनाए रखने की कोशिश की है। खास तौर पर लव-कुश (कुशवाहा और कोइरी), अति पिछड़ा और अनुसूचित जाति समुदायों की नुमाइंदगी को तरजीह दी गई है। जेडीयू की सूची में लव-कुश समुदाय, दलित समुदाय और अति पिछड़े वर्ग के उम्मीदवारों को टिकट दिया गया है। जेडीयू की सूची में ऊँची जाति को भी संतुष्ट करने की हर संभव कोशिश की गई है। न केवल बीजेपी और जेडीयू, बल्कि अन्य पार्टियाँ भी इसी फॉर्मूले पर चल रही हैं। विपक्षी महागठबंधन में राजद, कांग्रेस और अन्य सहयोगियों ने भी टिकट बँटवारे में जातिगत समीकरणों को प्राथमिकता दी है।

 

बिहार में जाति की सियासत की जड़ें कितनी गहरी हैं, इसका अंदाजा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि 20 वर्षों तक बिहार पर शासन करने वाले नीतीश कुमार और उनकी पार्टी जेडीयू ने उम्मीदवारों की घोषणा के साथ-साथ जाति आधारित विवरण की अलग सूची जारी की है। इसके अनुसार, विभिन्न जातियों को दिए गए टिकटों की संख्या बताई गई है। इसमें ओबीसी में कुशवाहा, कुर्मी, धानुक, यादव, मल्लाह आदि, अति पिछड़े वर्ग में मुसहर, मांझी, रविदास, पासी, पासवान आदि, अनुसूचित जाति के साथ-साथ सामान्य वर्ग के उम्मीदवारों का अलग-अलग उल्लेख किया गया है।

 

आँकड़ों और अतीत के सियासी अनुभवों के आधार पर कहा जा सकता है कि इस बार का चुनाव विकास और प्रदर्शन के आधार पर तो लड़ा ही जाएगा, लेकिन जाति को नजरअंदाज करना असंभव है। एक छोटी-सी चूक पूरे नतीजे को पलट सकती है। यही वजह है कि इस चुनाव में भी यही डर सभी दलों को सता रहा है। जनता की पसंद के वादे तो ठीक हैं, लेकिन अगर जातिगत ताना-बाना कमजोर पड़ गया तो बेड़ा गर्क होना तय है। यही कारण है कि सभी दलों ने टिकट बँटवारे में जातिगत संतुलन को पहली प्राथमिकता दी है। उम्मीदवारों के चयन में जाति का फॉर्मूला हावी है, क्योंकि बिहार की सियासत में जीत का रास्ता इसी से होकर गुजरता है। अगर कोई पार्टी इसे नजरअंदाज करती तो नतीजे विनाशकारी हो सकते थे।

 

जनता के लिए वादे और घोषणाओं के बावजूद जातिगत समीकरणों का ही नतीजा है कि मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और उनकी पार्टी जनता दल यूनाइटेड ने भी इसे प्राथमिकता देते हुए उम्मीदवारों को मैदान में उतारा है। चुनावी नतीजों को प्रभावित करने वाली जातिगत सियासत का डर बीजेपी को भी है, जिससे निपटने के लिए उसने भी उसी हिसाब से उम्मीदवार चुने हैं। राष्ट्रीय जनता दल को भी अच्छी तरह अंदाजा है कि जातिगत समीकरणों के बिना सत्ता हासिल नहीं हो सकती, इसलिए उसने भी अपने कदम फूँक-फूँककर रखे हैं। यह जरूरी भी था, क्योंकि यह हकीकत भी अपनी जगह कायम है कि इस बार का विधानसभा चुनाव सत्तारूढ़ नीतीश कुमार और उनके गठबंधन के लिए तो मुश्किल भरा है ही, विपक्षी गठबंधन के लिए भी आसान नहीं है। कई नई राजनीतिक पार्टियों ने दोनों के खिलाफ मोर्चा खोल रखा है। खास तौर पर जन सुराज पार्टी ने जिस तरह एनडीए और महागठबंधन की शासन शैली और उनके दौर के घपले-घोटालों को जनता के सामने खुली किताब की तरह पेश किया है, उससे इन गठबंधनों के लिए परंपरागत तरीके से जनता का वोट हासिल करना काफी मुश्किल हो गया है। इससे वोटों का बिखराव होना भी तय है और इसका फायदा किस गठबंधन को कम या ज्यादा मिलेगा, यह कहना अभी मुश्किल है।

 

मौके और दस्तूर के मुताबिक, राज्य के दो बड़े गठबंधन एनडीए और महागठबंधन ने अपनी-अपनी चालें चल दी हैं। अब गेंद जनता के पाले में है और देश-दुनिया को उस नतीजे का बेसब्री से इंतजार है, जो न केवल बिहार की सियासी तस्वीर बदलेगा, बल्कि राष्ट्रीय राजनीति को भी प्रभावित करेगा।

 

(लेखक उर्दू दैनिक इन्कलाब के पटना संस्करण में वरीय उप-संपादक के पद पर कार्यरत हैं,ये लेख उनके फेसबुक पेज से लेकर अनुवादित किया गया है)

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