बिहार विधानसभा चुनाव 2025 के नज़दीक आते ही राजनीतिक हलचल तेज़ हो गई है। इस बार नरेंद्र मोदी सरकार और एनडीए गठबंधन के सामने सबसे बड़ी चुनौती बेरोजगारी और मतदाता सूची से जुड़ी नाराज़गी की है। राज्य में बेरोजगारी दर पिछले कुछ महीनों में लगातार बढ़ी है, जिससे युवा वर्ग में असंतोष देखा जा रहा है। विपक्षी दल—खासकर राष्ट्रीय जनता दल (RJD) और कांग्रेस—ने इसे बड़ा चुनावी मुद्दा बना लिया है। तेजस्वी यादव बार-बार यह दावा कर रहे हैं कि “हर घर को सरकारी नौकरी” देना उनका संकल्प है, जबकि एनडीए सरकार के खिलाफ “वादा निभाओ” का नारा गूंजने लगा है।
वहीं, मतदाता सूची में अनियमितताओं और नाम कटने की शिकायतों ने भी राजनीतिक माहौल को गर्मा दिया है। कई जिलों में मतदाता सूची में बड़ी गड़बड़ियों के आरोप लगे हैं, जिसके कारण विपक्ष चुनाव आयोग से पारदर्शिता की मांग कर रहा है। विपक्ष का आरोप है कि “सत्तारूढ़ दल चुनावी लाभ के लिए मतदाता सूची में हेरफेर कर रहा है।” इस मुद्दे पर समाज के हर वर्ग में चिंता बढ़ी है, क्योंकि ग्रामीण इलाकों से लेकर शहरी क्षेत्रों तक लोगों ने मतदान सूची में नाम न होने की शिकायतें की हैं। इसके चलते एनडीए के लिए चुनावी समीकरण और कठिन हो सकते हैं।
राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि 2024 के लोकसभा चुनाव में मिली आंशिक सफलता के बाद अब बिहार का चुनाव एनडीए के लिए “परीक्षा” साबित हो सकता है। प्रधानमंत्री मोदी की लोकप्रियता अभी भी मजबूत है, लेकिन राज्य स्तर पर स्थानीय मुद्दे हावी होते दिख रहे हैं। जेडीयू और बीजेपी दोनों ही दल अब युवाओं को साधने और “गवर्नेंस बनाम वादाखिलाफी” की बहस को अपने पक्ष में मोड़ने की कोशिश में हैं। आने वाले दिनों में बेरोजगारी, विकास और पारदर्शी चुनाव जैसी बातें बिहार की राजनीति की धुरी बनने वाली हैं। ऐसे में यह कहना गलत नहीं होगा कि इस बार बिहार का चुनाव सिर्फ सीटों का नहीं, बल्कि जनता के भरोसे की भी परीक्षा होगा।