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वो खपड़े का घर

खपड़े का घर, द्वार और बीच में आंगन होता था, शाम होते खपड़ा के ऊपर से खाना बनने का संकेत चूल्हे से ऊपर धुंआ निकलता दिखता था,पड़ोसी बोलते फलाने के घर आग जल गई चलो आग मांगकर लाते हैं, खपड़ा का टुकड़ा लेकर पड़ोसी निकल जाते आग मांगने।
शहरीकरण के इस दौर में और मॉडर्न बनते इस दौर में अब इस तरह के घर नहीं दिखाई देते। नहीं वह रिवाज रहा की अपना चूल्हा जलाने के लिए पड़ोस के चूल्हे जलने का इंतजार हो। आज शहरों में गगनचुंबी इमारतें हैं तो ऐसो आराम की सभी वह चीजें जो आज से 40 50 साल पहले अच्छे अच्छे लोगों को नसीब नहीं हुआ करता था। इसके बावजूद आज के जीवन और दिनचर्या में उस वक्त के जैसी बात नहीं है। आज ना तो शुद्ध हवा मिल पा रही है और ना ही स्वच्छ पानी।

यह जिस दौर की बात है उस दौर में और भी कई बातें ऐसी थी जो आज ढूंढने पर भी नहीं मिलती है। जैसे आपसी भाईचारा मेल मिलाप एक दूसरे के काम आना। उस दौर में लोगों का जीवन जितना खुशहाल हुआ करता था शायद आज के दौर में वैसे जिंदगी बहुत कम लोगों को ही नसीब होती है। कहने को तो ऐसो आराम की तमाम चीजें मौजूद है लेकिन तमाम तर में मिलावट और नकली का डरो खौफ समाया रहता है। यह कच्चे मकान और घर जिस दौर में हुआ करते थे उस दौर में पीने का पानी से लेकर खाने का सामान तक शुद्ध हुआ करता था। ना कोई मिलावट और ना ही नकली होने का खौफ।

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वक्त के साथ बदलते इस दुनिया में बदलना स्वाभाविक है लेकिन अतीत की यादें कहीं ना कहीं आज की नई पीढ़ी के लिए इतिहास बन कर रह गई है।

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