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भाजपा में एक भी निर्वाचित मुस्लिम विधायक या सांसद न होना लोकतंत्र की नैतिकता पर सवाल

आर के जैन

आज़ादी के बाद से यह पहली बार हुआ है कि केंद्र में सत्तारूढ़ दल व देश की सबसे बड़ी राजनैतिक दल में एक भी मुस्लिम न तो सांसद हैं और न ही कोई निर्वाचित विधायक।लोक सभा व राज्य सभा में बीजेपी के सांसद क्रमश 301 व 95 है पर इनमें से एक भी मुस्लिम चेहरा नहीं है जबकि देश में मुस्लिमों की संख्या लगभग 20.4 करोड़ है जो कुल आबादी का 15% हैं ।इसी प्रकार देश के 31 राज्यों व केंद्र शासित प्रदेशों में बीजेपी के 1379 विधायको में से कोई भी मुस्लिम नहीं है । देश की कुल विधानसभा के 33% सदस्य बीजेपी के है जबकि लोक सभा में 55% तथा राज्य सभा में 38% सांसद बीजेपी के है।

 

अब सवाल यह है कि देश की 15% आबादी को अलग थलग कर कोई राजनीतिक दल ‘ सबका साथ सबका विकास ‘ का नारा कैसे दे सकता है । विश्व का सबसे बड़ा राजनैतिक दल होने का दावा करने वाली पार्टी अपने देश की 15% आबादी जो 20 करोड़ से भी अधिक है पर क्यों नहीं भरोसा करती ? क्या उसकी नीतियाँ इस समुदाय के विरुद्ध है और इसलिए इन्हें सत्ता में भागीदारी देने से हिचकती है ? अगर देश की एक बड़ी आबादी को सबसे बड़ी पार्टी अपने साथ जोड़ना नहीं चाहती या यह आबादी उससे जुड़ना नहीं चाहती तो यह एक गंभीर मामला बन जाता है । सबको साथ लेकर चलना व सबको समान अवसर देने वाला दल ही सही मायनों में लोकतांत्रिक मूल्यों की कसौटी पर खरा उतर सकता है ।

 

इस संबंध में मै ब्रिटेन का उदाहरण देना चाहूँगा । ब्रिटेन के हाउस ऑफ कॉमंस जो हमारी लोकसभा के समकक्ष है में 30 सदस्य भारत व पाकिस्तान के है जो वहॉ के मूल निवासी भी नहीं है। ब्रिटेन की संसद में हर दस सदस्यों में से एक सदस्य नस्लीय व धार्मिक अल्पसंख्यक ( ethnic) समुदाय से है। यह भी उल्लेखनीय हैं कि इन सदस्यों के देशों पर कभी ब्रिटेन का आधिपत्य रह चुका है ।

मेरा मानना है कि किसी दल की लोकप्रियता व स्वीकार्यता का पैमाना सिर्फ़ चुनाव जीतने से नहीं , बल्कि देश के हर समुदाय, जाति, व भौगोलिक क्षेत्र में स्वीकार्यता से मापा जाता है और जिसमें देश की सबसे बड़ी पार्टी खरी नहीं उतर पा रही हैं ।हो सकता है कि अगामी कुछ दिनों में हम देश के महामहिम राष्ट्रपति या उपराष्ट्रपति के पद पर अल्पसंख्यक समुदाय के किसी व्यक्ति को सुशोभित हुऐ देखें पर इन पदों पर विराजमान शख़्सियतों का सत्ता में सीधे कोई दखल नहीं होता और पद की गरिमा को देखते हुऐ ये किसी मुद्दे व समस्या पर आवाज़ नहीं उठा सकते । इनका समाज इनके चयन पर सिर्फ़ गर्व ही कर सकता है । बहरहाल यह भी हमारे लोकतंत्र का एक चेहरा है, जिसे हमने ही अपनाया है पर यह चेहरा लोकतंत्र की नैतिकता पर सवाल तो खड़े करता ही है ।

 

(ये लेखक के निजी विचार हैं,लेख उनके फेसबुक पेज से लिया गया है)

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