आज़ादी के बाद बिहार की राजनीति में स्थिरता एक दुर्लभ घटना रही है। बार-बार बदलते मुख्यमंत्री और अस्थिर सरकारों ने राज्य के विकास को कई बार प्रभावित किया। विशेष रूप से 1961 से 1990 के बीच 29 वर्षों में बिहार में 23 बार मुख्यमंत्री बदले गए। इस दौरान कुछ मुख्यमंत्री तो मात्र 4 से 17 दिनों के लिए सत्ता में रहे। राज्य के इतिहास में केवल चार मुख्यमंत्री ही ऐसे रहे जिन्होंने अपना पांच साल का कार्यकाल पूरा किया। इनमें श्रीकृष्ण सिंह, लालू प्रसाद यादव, राबड़ी देवी और नीतीश कुमार शामिल हैं। यह लेख बिहार की इस अस्थिर और जटिल राजनीतिक यात्रा का विश्लेषण करता है।
बिहार के प्रथम मुख्यमंत्री श्रीकृष्ण सिंह ने 15 अगस्त 1947 से 31 जनवरी 1961 तक लगभग 13 साल और 169 दिन तक सत्ता संभाली। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के इस दिग्गज नेता ने बिहार में स्थिर शासन की नींव रखी। उनके नेतृत्व में बिहार ने विकास के कई मापदंड स्थापित किए, जैसे भूमि सुधार, शिक्षा और बुनियादी ढांचे का विकास। श्रीकृष्ण सिंह का कार्यकाल बिहार का स्वर्णिम युग माना जाता है, जिसमें राजनीतिक स्थिरता और प्रशासनिक दक्षता ने राज्य को प्रगति की राह पर ले जाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।श्रीकृष्ण सिंह के निधन के बाद बिहार की राजनीति में अस्थिरता का दौर शुरू हुआ। 1961 से 1990 के बीच 29 वर्षों में 23 बार मुख्यमंत्री बदले गए। इस दौरान दीप नारायण सिंह (17 दिन), सतीश प्रसाद सिंह (4 दिन), भोला पासवान शास्त्री (तीन बार, लेकिन कोई भी कार्यकाल एक साल से अधिक नहीं), महामाया प्रसाद सिंह, बी.पी. मंडल, हरिहर सिंह और करपूरी ठाकुर (पहला कार्यकाल) जैसे नेताओं के कार्यकाल बेहद अल्प रहे। अन्य नेताओं जैसे बिनोदानंद झा, केबी सहाय, दरोगा प्रसाद राय, केदार पांडेय, अब्दुल गफूर, जगन्नाथ मिश्रा, राम सुंदर दास, चन्द्रशेखर सिंह, बिन्देश्वरी दुबे, भागवत झा आजाद और सत्येन्द्र नारायण सिन्हा ने भी इस दौर में सत्ता संभाली।इस अस्थिरता के कई कारण थे। कांग्रेस हाईकमान के बार-बार हस्तक्षेप, जातीय राजनीति का उभार और छोटे दलों की सत्ता तक पहुंचने की होड़ ने बिहार को अस्थिरता की ओर धकेला। इस दौरान कई बार राष्ट्रपति शासन भी लागू हुआ, जो बिहार की जटिल राजनीतिक स्थिति को दर्शाता है। इस अस्थिरता ने बिहार को कई क्षेत्रों में पिछड़ने का कारण बना, जैसे औद्योगिक विकास, शिक्षा और बुनियादी ढांचा।
1990 में लालू प्रसाद यादव के सत्ता में आने के साथ बिहार की राजनीति में एक नया अध्याय शुरू हुआ। लालू ने 1990 से 1997 तक और उनकी पत्नी राबड़ी देवी ने 1997 से 2005 तक सत्ता संभाली। दोनों ने मिलकर 15 साल तक बिहार पर शासन किया, जिसमें दोनों का कम से कम एक-एक कार्यकाल पूर्ण रहा। यह दौर सामाजिक न्याय की राजनीति का दौर माना जाता है, जिसमें पिछड़े वर्गों और दलितों को सशक्त करने की दिशा में कई कदम उठाए गए। हालांकि, इस दौर में बिहार को प्रशासनिक कमजोरियों और भ्रष्टाचार के आरोपों का भी सामना करना पड़ा।
2005 में नीतीश कुमार के सत्ता में आने के साथ बिहार में एक बार फिर स्थिर शासन की उम्मीद जगी। नीतीश ने 2005-2010 और 2015-2020 तक अपना कार्यकाल पूरा किया। 2010-2015 के कार्यकाल में एक छोटी अवधि के लिए जीतन राम मांझी मुख्यमंत्री बने। नीतीश कुमार ने बिहार में विकास, कानून-व्यवस्था और बुनियादी ढांचे के क्षेत्र में उल्लेखनीय कार्य किए। उनके लंबे कार्यकाल और बार-बार सत्ता में वापसी ने उन्हें बिहार के सबसे प्रभावशाली नेताओं में से एक बना दिया। नीतीश ने न केवल स्थिरता प्रदान की, बल्कि बिहार को विकास के नए रास्ते पर ले जाने में भी सफलता हासिल की।
बिहार की राजनीति में स्थिरता एक चुनौती रही है। श्रीकृष्ण सिंह, लालू प्रसाद यादव, राबड़ी देवी और नीतीश कुमार जैसे नेताओं ने अपने पूर्ण कार्यकाल के माध्यम से बिहार को स्थिर शासन देने की कोशिश की। हालांकि, 1961-1990 का दौर बिहार के लिए राजनीतिक अस्थिरता का प्रतीक रहा, जिसने राज्य को कई मोर्चों पर प्रभावित किया। नीतीश कुमार के नेतृत्व में बिहार ने हाल के वर्षों में प्रगति की है, लेकिन बार-बार बदलते मुख्यमंत्री और राजनीतिक उठा-पटक की छाया आज भी बिहार की राजनीति पर मंडराती है। भविष्य में बिहार को स्थिर और समावेशी शासन की आवश्यकता है, जो राज्य को विकास के नए आयाम दे सके।

