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राजनीति

न्यायिक फैसले कानून का शासन व संविधान के अनुसार

~ प्रो: नीलम महाजन सिंह ~
हाल ही में न्यायपालिका पर, सोशल मीडिया में इतना भयानक हमला हुआ है कि एक खास पार्टी के अनुयायी जजों पर व्यक्तिगत आरोप लगाते हैं और न्यायाधीशों पर महाभियोग चलाने की मांग करने लगे हैं। यह निंदनीय है! भारत के संविधान ने स्पष्ट रूप से परिभाषित किया है कि विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका लोकतंत्र के तीन महत्वपूर्ण अंग हैं और वे एक दूसरे से स्वतंत्र हैं। इसलिए न्यायपालिका को सरकार से पूर्ण स्वतंत्रता प्राप्त है। मैं न्यायाधीशों, वकीलों, प्रशासकों, नौकरशाहों, शिक्षाविदों आदि के परिवार से आती हूं।

 

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मैं निश्चित रूप से जानती हूं कि मेरे परिवार के इन सदस्यों के लिए अपने निजी जीवन में सामाजिक समारोहों और सार्वजनिक कार्यक्रमों से खुद को रोकना कितना कठिन था। वे फोन पर भी संवाद नहीं करते थे। न्यायमूर्ति राजा जसवंत सिंह, न्यायमूर्ति ए.एस. आनंद, भारत के मुख्य न्यायाधीश, न्यायमूर्ति वी.बी. गुप्ता, न्यायमूर्ति अनिल देव सिंह, पारिवारिक कार्यों से भी दूर रहने लगे। ‘अदालत की अवमानना’ एक विवादास्पद मुद्दा रहा है। भारत के सर्वोच्च न्यायालय और राज्यों के उच्च न्यायालयों को अवमानना ​​की शक्तियाँ प्राप्त हैं। जिला एवं सत्र न्यायालयों को अवमानना ​​का अधिकार नहीं है। वे अपराधी को फटकार सकते हैं। यह उम्मीद की जाती है कि अदालतों में जाने वाले लोग सम्मानजनक तरीके से व्यवहार करेंगे। जजों का सम्मान ज़रूरी है ! यह भी उल्लेख किया जा सकता है कि उच्च न्यायालयों में न्यायाधीशों की नियुक्ति ‘मूल रूप से एक कानूनी-राजनीतिक प्रक्रिया’ है। इन न्यायाधीशों का चयन उस राज्य के मुख्यमंत्री, मुख्य न्यायाधीश और राज्यपाल द्वारा किया जाता है। ज़ाहिर है कि अधिवक्ताओं से लेकर न्यायाधीशों तक के चयन में एक राजनीतिक कोण है। भारत के सर्वोच्च न्यायालय में भी सीधे नियुक्त होने वाले न्यायाधीशों का एक मज़बूत राजनीतिक संबंध होता है। यह, वह राजनीतिक संबंध है जो उन्हें सीधे सर्वोच्च न्यायालय और राज्यों के उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों के पद तक ले जाता है। न्यायाधीशों का चयन करने वाला ‘कॉलिजियम’ पूर्ण शक्तियों का उपयोग नहीं करता है; जैसा कि पिछले कुछ वर्षों में कई नियुक्तियों में देखा गया है ! न्यायपालिका अपने आप में पूरी तरह स्वतंत्र नहीं है! मैं उन न्यायाधीशों के नाम का उल्लेख नहीं करना चाहती जो भारत के सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालयों में राजनीतिक नियुक्त हैं। अधिकांश कानूनी बिरादरी इसके बारे में जानती है। समय लेने वाली प्रक्रियाओं के साथ न्यायालय से न्याय प्राप्त करने की प्रक्रिया एक महंगी प्रक्रिया है। इससे न्यायपालिका में आम आदमी के विश्वास की हानि होती है! वकीलों द्वारा तैयार किए गए वादों में बहुत सारे झूठ, मनगढ़ंत बातें, अनुमान लिखे गए हैं। आम आदमी और जजों के बीच भयानक मतभेद देखने को मिलते हैं। मेरे रिश्तेदार न्यायाधीश ने एक बार मुझसे कहा, “अक्सर हमारे हाथ बंधे होते हैं। हमें दोनों पक्षों की बात सुननी होती है और जो सबूत हमें दिए जाते हैं, उसके आधार पर हमें एक आदेश देना होता है।” कई बार निर्दोष लोगों के खिलाफ अनुचित आदेश पारित किए जाते हैं, जो पुलिस की बर्बरता, मनमानी, थर्ड डिग्री यातना, फ़र्जी एफआईआर में झूठे फंसाने के शिकार होते हैं। हाल ही में जजों पर व्यक्तिगत हमलों का चलन हो रहा है, आदेश उनके पक्ष में नहीं है तो। अब सोशल मीडिया के आगमन के साथ यह देखा गया है कि किसी विशेष राजनीतिक दल के अनुयायी फेसबुक, ट्विटर, इंस्टाग्राम आदि पर निंदनीय बयान देते हैं जो न केवल न्यायाधीशों के लिए बल्कि उनके परिवार के सदस्यों के लिए भी हानिकारक होते हैं।

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हिन्दुस्तान टाइम्स ग्रुप की चेयरपर्सन श्रीमती शोभना भारतीया और चंदन मित्रा के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस ए.एस. आनंद, चीफ जस्टिस और जस्टिस कुलदीप सिंह द्वारा स्वत: संज्ञान लेने का मामला महत्वपूर्ण है। इसमें चंदन मित्रा ने छापा था कि, “सुप्रीम कोर्ट के इन जजों के को एक मनोरोग – psychiatric उपचार की आवश्यकता है”। उन्हें ‘कोर्ट की अवमानना ​​का नोटिस’ दिया गया था। हिंदुस्तान टाइम्स के सभी निदेशकों को भारत के सर्वोच्च न्यायालय में व्यक्तिगत रूप से उपस्थित होने का निर्देश दिया गया था। श्री फली नरीमन के अलावा किसी ने भी अवमानना ​​करने वालों का प्रतिनिधित्व नहीं किया। श्री नरीमन ने चंदन मित्रा और एच.टी. निदेशक हिंदुस्तान टाइम्स को पहले पन्ने की सुर्खियों में, भारत के सर्वोच्च न्यायालय से माफी मांगनी पड़ी, जिसमें कहा गया था कि चंदन मित्रा ने भारत के सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों के खिलाफ जो कुछ भी लिखा है, उसका गहरा खेद है। उनका इरादा कभी भी कोर्ट की भावनाओं को ठेस पहुंचाने का नहीं था। यहां तक ​​कि प्रशांत भूषण को भी अवमानना ​​की सजा व जेल से बचा लिया गया, ₹1/- का जुर्माना देकर! जस्टिस दीपक गुप्ता उनकी माफी के लिए तैयार हो गए लेकिन प्रशांत भूषण के खिलाफ सख्त कार्रवाई की गई। हाल की भयानक घटनाओं में, भाजपा की नूपुर शर्मा और नवीन कुमार जिंदल के पैगंबर मुहम्मद पर एक बयान के बाद, दो हिंदुओं की निंदनीय हत्या हुई है। सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस सूर्यकांत और जस्टिस जे.बी. पारदीवाला ने नूपुर शर्मा को गिरफ्तार नहीं करने पर सरकार और दिल्ली पुलिस के खिलाफ कड़ी टिप्पणी की थी।

 

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अदालत ने कहा कि गृह मंत्रालय, भाजपा और पुलिस, उनकी रक्षा कर रही है। जहां तक ​​नूपुर शर्मा के खिलाफ सभी एफआईआर को दिल्ली ट्रांसफर करने की याचिका दायर करने वाले वकील मनिंदर सिंह की बात है, तो उसे खारिज कर दिया गया है। इस राहत के लिए अर्नब गोस्वामी के मामले में यह स्थापित है कि विभिन्न राज्यों में सभी प्राथमिकीयों को याचिकाकर्ता की इच्छा के अनुसार एक राज्य में स्थानांतरित कर दी जाएंगी। नूपुर शर्मा के खिलाफ तीखी मौखिक टिप्पणियों ने भाजपा, नूपुर शर्मा समर्थकों, कट्टरपंथीयों द्वारा सोशल मीडिया पर हमलों की बौछार कर दी है। यह स्पष्ट है कि पैगम्बर मोहम्मद रसूल और हज़रत आयशा के खिलाफ सोशल मीडिया पर बेहूदा, ईशनिंदा वाली टिप्पणी नहीं की जानी चाहिए थी। नूपुर शर्मा की टिप्पणी ने विश्व स्तर पर मुस्लिम भावनाओं की आग भड़का दी। दिल्ली पुलिस के सामने आत्मसमर्पण करने के बजाय, वह कई हफ्तों से अंडरग्राउंड है! बिना शर्त माफी मांगने के लिए उसके द्वारा कोई वीडियो रिकॉर्डिंग नहीं की गई है। उसका अहंकार और अवज्ञा बहुत बड़ा है। पैगंबर मुहम्मद और हज़रत आयशा के खिलाफ उनके बयान बहुत ही अपमानजनक तरीके के हैं। “न्यायाधीशों पर व्यक्तिगत हमले कानून के शासन को नुकसान पहुंचाते हैं। कानूनी मुद्दों का राजनीतिकरण करने के लिए सोशल और डिजिटल मीडिया का अक्सर इस्तेमाल किया जा रहा है,” जस्टिस जे. बी. पारदीवाला ने कहा, जो भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) नुपुर शर्मा की आलोचना करने वाली सुप्रीम कोर्ट की बेंच का हिस्सा थे। उन्होंने कहा कि न्यायाधीशों पर उनके फैसलों के लिए व्यक्तिगत हमले एक “खतरनाक परिदृश्य” की ओर ले जाते हैं, जहां न्यायाधीशों को यह सोचना पड़ता है कि कानून वास्तव में क्या सोचता है, इसके बजाय मीडिया क्या सोचता है?

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“सोशल और डिजिटल मीडिया मुख्य रूप से न्यायाधीशों के खिलाफ व्यक्तिगत राय व्यक्त करने के बजाय उनके निर्णयों के रचनात्मक आलोचनात्मक मूल्यांकन का सहारा लेता है। यह वही है जो न्यायिक संस्थान को नुकसान पहुंचा रहा है और उसकी गरिमा को कम कर रहा है,” जस्टिस पारदीवाला कहते हैं। न्यायिक निर्णय जनमत के प्रभाव का प्रतिबिंब नहीं हो सकते। लोकप्रिय जन भावनाओं पर कानून के शासन की प्रधानता पर ज़ोर देते हुए, न्यायमूर्ति पारदीवाला ने कहा कि एक ओर बहुसंख्यक आबादी के इरादे को संतुलित करना और उसकी मांग को पूरा करना और दूसरी ओर कानून के शासन की पुष्टि करना एक “कठिन अभ्यास” है। वे द्वितीय न्यायमूर्ति एच.आर. खन्ना मेमोरियल राष्ट्रीय संगोष्ठी में बोल रहे थे। “मेरा दृढ़ विश्वास है कि यह देश के सर्वोच्च न्यायालय के लिए है कि वह केवल एक चीज ध्यान में रखते हुए चीज़ों का फैसला करे वह है कानून का शासन … न्यायिक फैसले जनता की राय के प्रभाव का प्रतिबिंब नहीं हो सकते … मेरा मानना ​​​​है कि एक लोकतंत्र में, हमारे पास अदालती फैसलों से जीने के लिए व्यवस्थित समझौते हैं, इसका मतलब यह नहीं है कि अदालत के फैसले हमेशा सही होते हैं और अन्य सभी विचारों से मुक्त होते हैं। हम बस उनके द्वारा जीने के लिए सहमत हैं। लोकतंत्र में, कानून अधिक महत्वपूर्ण है वह “वोक्स पॉपुली बनाम कानून का नियम: भारत का सर्वोच्च न्यायालय” विषय पर बोलते हुए कहा। यदि सामाजिक मीडिया में न्यायिक आदेशों को लागू नहीं किया जाता है या उनका उपहास नहीं किया जाता है, तो इससे नागरिकों को भारत के संविधान द्वारा प्रदान किए गए उनके मौलिक अधिकारों की रक्षा करने में कोई राहत नहीं मिलेगी। हम न्यायाधीशों ना करें! आदेश के खिलाफ उच्च अपीलीय अदालत में अपील कर सकते हैं और स्ट्रीट स्मार्ट तरीके से सोशल मिडिया का इस्तेमाल निंदनीय है। सच्चाई की जीत होने दो। सत्यमेव जयते!

(एल.एल.बी. एम.फिल. एम.ए. सेंट स्टीफन कॉलेज, टीवी न्यूज़ प्रोडक्शन-एफटीआईआई, पुणे वरिष्ठ पत्रकार,)

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