मुकेश नेमा
नाराजगी तो वाजिब है मेरी स्मार्ट फोनो से ! अब इतने स्मार्ट होने का भी क्या फायदा कि आप अपनी परम्परायें ,संस्कृति ,इतिहास सब भूल जायें ! इस मरदूद चीज ने इन सभी क्षेत्रो मे जो नुकसान किया है उसे एक बार फिर भी सहन किया जा सकता है पर इनके होने ने हिंदी साहित्य के इलाके मे जो धनिया बोया है उसके लिये इसे कभी माफ नही किया जा सकता !मेरी इस तकलीफ को बीस पच्चीस साल पहले पैदा हुये लडके समझ नही सकेगें दरअसल ये उन लोगो की बात है जो इस मशीन के पैदा होने के पहले ही इस फानी दुनिया मे चले आये ! और जिन्होने इस मशीन की मदद के बिना ही प्रेम किया ! जब तक ये नही थे तब तक चिट्ठी पत्री भेजने का रिवाज जोरो पर था ! लोग तब भी अपने मन की बात कहना चाहते थे और तब भी कहासुनी को लिखकर बताना सुविधाजनक माना जाता था !
ऐसे मे बाप की लडके को लिखी सख्त लट्ठमार चिट्ठियों या पिता के पत्र पुत्री के नाम टाईप की कोमल और शिक्षाप्रद चिट्ठियो को छोड दे तो लोग जब भी लिखते थे प्रेमपत्र ही लिखते थे ! जब भी मौका मिले तब लिख देते थे ! उन दिनो लोगो के पास फुरसत ही फुरसत थी लोगो को कुछ सूझता नही था और जब कुछ सूझता नही था तब किसी के प्रेम मे पड जाना ही वक्त काटने का सबसे अच्छा तरीका हुआ करता था ! प्रेम सुलभता के सिद्धान्त पर काम करता था उन दिनो ! इसलिये ये चिट्ठियाँ उस लडकी को भेजी जाती थी जो सबसे पहले देखी गई हो ! इसलिये ये पत्र जिन्हे सहूलियत की दृष्टि से लव लैटर कहा जाता था उसे ही लिखना उचित माना जाता था जो आसपास ही रहती हो और जिसके बाप या भाई ज्यादा हिंसक किस्म के ना हों !
और फिर ऐसी चिट्ठियाँ लिखने के पहले यह तसल्ली कर लेना भी जरूरी होता था कि लडकी कम से कम इतनी समझदार तो जरूर हो कि अपनी अम्मा से चिट्ठी पढवाने का ख्याल ना आये उसके दिमाग मे ! पर लडकियो के दिमाग पढना ना पहले कोई सीख सका था ना अब भी ऐसा किया जा सकता है पर हिंदी साहित्य की खातिर लोग रिस्क लेते थे और कुछेक सफल हो भी जाते थे !चिट्ठियाँ सही सलामत पहुँचा पाना तलवार की धार पर चलने जैसा था ! चिट्ठी में तब की हिंदी फ़िल्मों की तरह सारे मसाले डाल भी ले और मनचाही छोरी तक डिलेवर भी करवा पाये ,इसका तरीक़ा सोचने भर मे बंदा स्कूल मे तीन दफे फ़ेल हो लेता था ! बिना पिटे ऐसा कर जाना आज की तरह आसान नही था ! उन दिनो यह आम बात थी कि चिट्ठी के बहक कर गलत हाथो मे चले जाने की वजह से लिखने वाला कूटा भी गया और सामने वाली को उसके प्रेम मे पड़े होने की खबर भी ना हो सकी ! ऐसी चिट्ठियाँ लिखने मे बहुत मेहनत लगती थी ! झूठ तो खैर अब भी बोलना पडता है ! पर नाक बहाती ,गंदी फ्राक पहनने वाली ,नंगे पाँव घूमती लडकी को दुनिया की सबसे खूबसूरत लडकी बता पाना ही इन चिट्ठियो को महान ,लोकप्रिय ,कालजयी साहित्य टाईप का बना पाता था !
अब ऐसे पत्र ऐसे ही मुँह उठाकर तो नही लिखे जा सकते थे ! बहुत कुछ सोचना विचारना पडता था ! शुरूवाती पत्र का मौलिक होना प्रेम की हत्या ना कर दे इस डर से किसी समझदार किस्म के अनुभवी दोस्त की सलाहे भी लेनी होती थी ! उसे प्रेम की पृष्ठभूमि समझाने के पहले खुद यह भी समझना होता था कि वह अनुभवी दोस्त उस सुकन्या से खुद ही सीधे पत्राचार ना करने लगे।लिखने वाला पूरी कोशिश करता था कि ऐसा कुछ लिखा जाये कि पढने वाली उसकी विद्वता से आतकिंत हो जाये ! मान ले कि इस लडके मे और कुछ ना भी हो तो दिमाग को है ही ! इस लिहाज से इन चिट्ठियो मे मीर ,गालिब या लाल बुझक्कड को उनकी रजामंदी के बिना शामिल कर लिया जाता था !उन दिनो भी लडकियाँ शकल सूरत के अलावा कभी कभार दिमाग जैसी चीज को भी तवज्जो दे दिया करती थी ! दिमाग इस बात की संभावना जगाता था कि लडका सरकारी बाबू टाईप कुछ ना कुछ तो कर ही लेगा ! लडकी यदि इस तरह सोचती थी तो लडके का और कही ना भी हो तो प्रेम के कैरियर की शुरूवात तो हो ही सकती थी !पर ऐसी चिट्ठियाँ सब लोग लिख पाते नही थे ! वही होनहार ऐसा कर पाये जिनके पाँव तब पालने मे दिखे ! उस वक्त जो कायदे के प्रेमपत्र लिख पाये ,जिन्होने अपने दोस्तो को प्रेम पत्र लिखने मे मदद की ,जिन्होने अपने दोस्तो के लिये प्रेमपत्र लिखे वे भी आगे चलकर हिंदी जगत के धुरधंर लेखक सिद्ध हुये ! अफसर बने और इस कारण भी लोगो को उन्हे लेखक मानना पडा !
जहाँ तक मेरी बात है मै होश सँभालते ही इस नतीजे पर पहुँच गया था कि मुझे बडा होकर हिंदी साहित्य की सेवा करनी है ! हिंदी साहित्य को उन लडकियों का कृतज्ञ होना चाहिये जिन्हे मैने स्कूली दिनो मे पत्र लिखे ! मैनें हिंदी की जो भी जबरन सेवा की है उसमे उनका विनम्र योगदान भी सम्मिलित है !प्रेमपत्र लिखना हिंदी साहित्य की नर्सरी हुआ करती थी तब ! अफसोस स्मार्ट फोन जैसी खतपतवार ने इसे तबाह कर दिया है ! और इनकी ही वजह से मुझे अपने बाद अब हिंदी साहित्य का भविष्य कुछ खास उज्ज्जवल नही दिखता !