Nationalist Bharat
शिक्षा

हिन्दी साहित्य में राजभक्ति की परंपरा

डॉक्टर राजू रंजन प्रसाद

फेसबुक पर इन दिनों राष्ट्रवाद की आंधी चल रही है। देशभक्ति की धूल जब ज्यादा हो तो राजभक्ति नहीं नजर आती जबकि सच्चाई है कि देशभक्ति और राजभक्ति का द्वंद्व साहित्यकारों और राजनीतिज्ञों में समान रूप से रहा है। यह द्वंद्व हिन्दी साहित्य में राजा शिवप्रसाद और भारतेन्दु के समय में तो रहा ही, उनके बाद के साहित्य में भी राजभक्ति की परंपरा रही है। महावीरप्रसाद द्विवेदी तक में रही है। देशभक्ति की बात बहुतेरे कर रहे हैं, इसलिए मैं राजभक्ति की परंपरा की बात छेड़ता हूँ।

राजा शिवप्रसाद ब्रिटिश गवर्नमेंट के बड़े भक्त थे, सिक्ख-युद्ध में उन्होंने जासूसी भी की थी। (श्यामसुंदर दास, मेरी आत्मकहानी, इंडियन प्रेस, प्रयाग, 1941, पृष्ठ 22) इंग्लैंड से पिन्काट नामक एक अँगरेज हिन्दी-भक्त ने भारतेन्दुजी को पत्र लिखा कि ‘‘राजा शिवप्रसाद बड़ा चतुर है। बीस बरस हुए, उसने सोचा कि अँगरेज साहबों को कैसी-कैसी बातें अच्छी लगती हैं, उन बातों को प्रचलित करना चतुर लोगों का परम धर्म है। …राजा शिवप्रसाद को अपना ही हित सब से भारी बात है।’’ (रामधारी सिंह ‘दिनकर’, संस्कृति के चार अध्याय, लोकभारती प्रकाशन, नवीन संस्करण: 2006, पृष्ठ 396)

शाहाबाद जिले के मटुकपुर ग्राम के निवासी ब्रजविहारी लाल (जन्म 1844 ई.) की अंगरेजी राज के कर्मचारियों के बीच अच्छी प्रतिष्ठा थी। सन् 1857 ई. के गदर के बाद ‘राजभक्त’ होने के कारण आपने दरबारी की प्रतिष्ठा प्राप्त की और महारानी विक्टोरिया की पहली जुबली (1 जनवरी, सन् 1877 ई. के दरबार (बांकीपुर, पटना) में निमंत्रित किये गये थे। (हिंदी साहित्य और बिहार, द्वितीय खंड, पृष्ठ 83) गया जिले के दाउदनगर निवासी पत्तनलाल ‘सुशील’ ने भी महारानी विक्टोरिया के जुबली-जुलूस पर ‘जुबली-पाठिका’ नामक पुस्तक की रचना की थी, जो खड्गविलास प्रेस, पटना से प्रकाशित है। (वही)

 

 

सन् 1887 ई. में महारानी विक्टोरिया की जुबली के अवसर पर बनारस ‘कवि समाज’ ने ‘चिरजीवी रहो विक्टोरिया रानी’ की समस्या पूर्ति करवाई थी। दरभंगा जिले के निवासी मारकण्डेय लाल की पूर्ति से प्रसन्न होकर ‘कवि समाज’ ने आपको ‘चिरजीवी’ की उपाधि दे दी थी। (हिंदी साहित्य और बिहार, द्वितीय खंड, पृष्ठ 274, पादटिप्पणी 1) ‘चिरजीवी रहो विक्टोरिया रानी’ के पूर्तिकारों में पण्डित अम्बिकादत्त व्यास भी थे। (डा. धीरेन्द्रनाथ सिंह, आधुनिक हिन्दी के विकास में खड्गविलास प्रेस की भूमिका, बिहार राष्ट्रभाषा परिषद्, पटना, प्रथम संस्करण: 1986, पृष्ठ 210) इतना ही नहीं, व्यासजी ने मुजफ्फरपुर (बिहार) में सन् 1887 ई. में ‘भारत-सौभाग्य’ नामक नाटक की रचना की थी। उसी वर्ष यह पुस्तक खड्गविलास प्रेस से छपी। रामदीन सिंह ने महारानी विक्टोरिया की जुबिली के अवसर पर इसे मुद्रित कर निःशुल्क वितरित किया था। यह पुस्तक बड़ी अच्छी सुनहली किनारी तथा विभिन्न रंगों में छापी गई थी। विदेशी पत्रों ने इसकी बड़ी सराहना की थी। (वही, पृष्ठ 226) यह नाटक ‘क्षत्रिय-पत्रिका’ के ‘प्रीति-स्वरूप’ वितरित किया गया उपहार था। चार दृश्यों और इक्यावन पृष्ठों का यह नाटक अंग्रेजी शासन के प्रति आस्था प्रकट करता है-‘‘कविजनवर्णित कीर्ति, भरतिभरणस्य भारम्/धन्या मान्या प्राज्ञी, राज्ञी विक्टोरिया नाम्नी।।1।।/विलसन्तु तत्करमलै, भारतसौभाग्यमेतदतिसुखदम्/भारतभूवास्तवैः, मा चिन्तां का´्चनाऽपिगमः।।2।।/भारतसौभाग्यतत्त्वं, मा चिन्तां का´्चनाऽपि गमः/सा लालयति यतस्त्वां, राज्ञी श्रीभारतेश्वरी देवी।।3।। (‘क्षत्रिय-पत्रिका’ सन्दर्भ-सम्पादकैः; डा. धीरेन्द्रनाथ सिंह, पूर्वोक्त, पृष्ठ 226 पर उद्धृत) इन चार अंकों में दिखलाया गया है कि अंग्रेजी राज के पूर्व मुगलकाल में यवनों के दुराचार, मूर्खता, फूट आदि से भारत में दुर्भाग्य का साम्राज्य आ गया था। अंग्रेजी राज में शिक्षा, उत्साह, एकता, यन्त्रविद्या और शिल्प ने दुर्भाग्य को दूर कर दिया। (धीरेन्द्रनाथ सिंह, पूर्वोक्त, पृष्ठ 227)

उपन्यासकार भुवनेश्वर मिश्र (मिश्रटोला, दरभंगा) ने बिहार बन्धु के ‘चिट्ठी पत्री’ स्तम्भ में सुझाव दिया था कि महारानी के भारत राज्यारोहण अर्धशताब्दी के अवसर पर सभी हिन्दी संवादपत्र 16 फरवरी, 1887 ईस्वी को एक अतिरिक्त अंक अर्थात विशेषांक का प्रकाशन करें जिसमें महारानी विक्टोरिया का मात्र गुणगान हो। (बिहार बन्धु, 3 फरवरी, 1887, जिल्द 16, नम्बर 5; रामनिरंजन परिमलेन्दु, भारतेन्दु काल के भूले बिसरे कवि और उनका काव्य, पृष्ठ 286, पाद टिप्पणी संख्या 16) मिश्र जी ने 1887 में यह भी कहा था :
‘‘छिन सीसमणि नृप औरनके निज आसन लाय दई रखिदानी।
छिनसीष धरे सब राज बड़े जिहिके पग पै बड़ आश्रम जानी।
जिहिके कर दण्ड कराल सदा धमकावत दुष्ट छली अरू मानी।
गुन और अनेक भरे जिहिमें चिरजीव सदा विक्टोरिया रानी।।’’ (बिहार बन्धु, पूर्वोक्तय परिमलेन्दु, पूर्वोक्त, पृष्ठ 258)

ठाकुर प्रसाद सिंह की पुस्तक ‘जवाहिर जुबिली जगमगाहट’ सन 1898 ईस्वी में बिहार बन्धु छापाखाना, बांकीपुर, पटना से प्रकाशित हुई थी। इसमें जनता को ब्रिटिश शासन से मिलनेवाली सुविधाओं का खुला वर्णन है। रचनाकार की दलील के अनुसार, भारत में ब्रिटिश शासन ईश्वरीय वरदानस्वरूप था (ठाकुर प्रसाद सिंह, जवाहिर जुबिली जगमगाहट, 1.3.1898 ईस्वी को अंग्रेजी में लिखित ‘प्रिफेस’) और सभ्यता का प्रचार उसका लक्ष्य था। जनता में ब्रिटिश शासन के प्रति व्याप्त असंतोष को दूर कर उसमें राजभक्ति उत्पन्न करना ‘जवाहिर जुबिली जगमगाहट’ का उद्देश्य है (वही) क्योंकि सरकार की खामियों के कारण शासन के प्रति जनता में तीव्र असंतोष व्याप्त था। जन-व्यथा से लोगों का ध्यान हटाने के लिए उक्त कवि ने ‘जवाहिर जुबिली जगमगाहट’ की रचना की। (परिमलेन्दु, पूर्वोद्धृत, पृष्ठ 267)

 

 

‘बिहार बन्धु’ ने भारत के विक्टोरिया काल में राजभक्ति के स्वरूप की मीमांसा की। बन्धु (6 फरवरी, 1878 ईस्वी, जिल्द 6, नंबर 6) में ‘राजभक्ति किसे कहते हैं?’ शीर्षक से संपादकीय लेख प्रकाशित है, जिसमें यह भाव सन्निहित है। ‘बिहार बन्धु’ के अनुसार, ‘राजभक्त बहुतेरे उसे कहते हैं जो शख्श राज की सिर्फ तारीफ ही करे, और ऐब अगर कहीं देखे तो खाह चुप ही रह जाये, पर उस ऐब को ऐब न कहे। आज कल के सरकारी अफसर इसी को राजभक्ति कहते हैं। हम लोग भी राजभक्त हैं, पर न ऐसे हैं न ऐसे होने चाहते हैं…..। मगर हमलोग राजभक्त हैं, खुशामदी नहीं। हम तो अपने मुल्क के दोस्त हैं, पस जो हमारे मुल्क का दोस्त है वह हमारा भी दोस्त, और जो हमारे मुल्क का दुश्मन है वह बेशक हमारा भी दुश्मन है। हम इस बात के लिये अंगरेजी गवर्नमेंट को अपना पूरा दोस्त समझते हैं कि उन्होंने ऐन वक्त पर हमारी बुरी हालत पर तर्स खा के इस मुल्क को अपने हाथ में लिया, और जैसा चाहिए वैसा इंतजाम किया। उन्होंने हमें लिखाया पढ़ाया, इंसान बनाया। उन्हीं की मिहरबानी से आज हमें बातें करने आया। अब हम अगर इन भलाइयों को भूल जावें तो बेशक कृतघ्न कहलायेंगे। अब भी हिंदुस्तान को अंगरेजी ही गवर्नमेंट से गत पत है। ये अगर आज छोड़ दें तो हमलोगों का पता न लगे। हम इसी वजह से अंगरेजी गवर्नमेंट को चाहते हैं, इसके कायम रहने की ख्वाहिश करते हैं…..।’ (बिहार बन्धु, 6 फरवरी, 1878 ईस्वी, जिल्द 6, नंबर 6, पृष्ठ 1-2; परिमलेन्दु, पूर्वोद्धृत, पृष्ठ 267-68)

यद्यपि ‘बिहार बन्धु’ ने ‘खुशामदी’ नहीं होने की सफाई पेश की है तथापि उसका यह कथन इतिहास के तथ्यों के सर्वदा विरुद्ध है कि अंग्रेजों ने ‘हमारी बुरी हालत पर तर्स खा के इस मुल्क को अपने हाथ में लिया…।’ हमारे देश में अंग्रेजों का शासन कैसे प्रारंभ हुआ, यह सर्वविदित है। अंग्रेज सरकार की अनिवार्यता की वकालत में हीनता की भावना थी। (परिमलेन्दु, पूर्वोद्धृत, पृष्ठ 268)

‘माता से बढ़कर’ आदर पानेवाली और ‘दया की मूर्ति’ महारानी विक्टोरिया के 1901 ईस्वी में निधनोपरांत वेंकटेश्वर प्रेस के स्वत्वाधिकारी खेमराज जी के आग्रह पर बूंदीनिवासी लज्जाराम जी ने ‘विक्टोरिया चरित्र’ लिखा जो उसी वर्ष के सितंबर माह में प्रकाशित भी हुआ। ‘भूमिका’ में लेखक ने स्वीकार किया है कि ‘हिन्दी में विक्टोरिया का जीवनचरित उपलब्ध नहीं है’, इसलिए कहा जा सकता है कि इस पुस्तक ने एक बड़े ‘अभाव’ की पूर्ति की है।

इस पुस्तक की रचना करने में लेखक को ‘टाइम्स ऑफ इंडिया’, ‘पायोनियर’, ‘एडवोकेट ऑफ इंडिया’, ‘अमृतबाजार पत्रिका’, ‘मुम्बई समाचार’, ‘गुजराती’, ‘केसरी’ आदि देशी समाचार पत्रों से काफी मदद मिली। कहना न होगा कि इन पत्रों में महारानी विक्टोरिया से संबंधित विपुल साहित्य छपता होगा। और छपे भी क्यों नहीं। हिंदुस्तान की प्रजा उन्हें ‘अपनी माता से बढ़कर’ चाहती थी। शायद इसीलिए लज्जाराम शर्मा जी को अगाध विश्वास था कि पाठक पुस्तक को पढ़कर ‘आनंद’ उठाएंगे।
पुस्तक की शुरुआत में ‘मंगलाचरण’ की तर्ज पर पंडित नंदलालजीशास्त्रिरचित ‘विक्टोरिया सप्तक’ भी दिया गया है।

 

 

1897 के आसपास राधाकृष्णदास ने ‘जुबिली’ शीर्षक से महारानी विक्टोरिया की प्रशस्ति में कविता लिखी थी जिसमें भारत की सुख-समृद्धि के गीत गाये। पुनः 1901 ईस्वी में महारानी विक्टोरिया के निधन पर ‘विक्टोरिया शोकप्रकाश’ लिखा जो नागरी प्रचारिणी सभा की पत्रिका (भाग 5, 1901) में छपा। दास जी ने व्यथित मन से लिखा-“बीसवीं शताब्दी में न जाने कैसी कुसाइत ने पैर रखा कि शताब्दी के उलट फेर के साथ ही हम लोगों के भाग्य का भी उलट फेर कर दिया। हाय! यह आज क्या सुनते हैं कि जिसे दयामयी, स्नेहमयी महारानी विजयिनी (विक्टोरिया) की स्नेहमय (यी) गोद में प्रायः तिरसठ वर्ष तक हम अभागे भारतवासियों ने सुख से काल यापन किया था-उनकी पवित्रात्मा अब केवल उनकी यशोराशि को संसार में छोड़कर और उनके पवित्र पार्थिव शरीर को, जिसके प्रताप के अटने के लिये यह सारी पृथ्वी भी छोटी थी, केवल साढ़े तीन हाथ भूमि में अनार्यों की भांति सुलाकर इस संसार से अंतर्हित हो गईं। यद्यपि इस अशुभ संवाद को विश्वास करने का एकाएकी जी नहीं चाहता, परंतु क्या किया जाय।”

प्रथम विश्व-महायुद्ध के संदर्भ में सन् 1918 ई. में खड्गविलास प्रेस, पटना से ‘महासमर-कवितावली’ नामक पुस्तक प्रकाशित हुई थी। इसमें खड़ीबोली में रचित उद्बोधन-गीत हैं। अंगरेजी राज्य की प्रशस्ति में यह पुस्तक लिखी गई है। कवि ने एक स्थान पर लिखा है: ‘महाराज जीवें बड़ा नाम पावें/बढ़ी धाक भगवान दिन-दिन बढ़ावें।/महारानी नित रँगरेलियाँ मनावें/हम उनके रहें और काम उनके आवें।/ब्रिटिश जाति जीते सुजस हो सवाया/सदा हम सबों पर रहे उसकी छाया।’ और अन्त में कवि ने कहा: ‘धूम होगी जरमनी के हार की/जीत होवेगी ब्रिटिश सरकार की।’ (डा. धीरेन्द्रनाथ सिंह, पूर्वोक्त, पृष्ठ 272)

 

 

शाहाबाद जिला के ‘मुरार’ नामक स्थान के वासी रघुवीर प्रसाद (रघुवीरशरण प्रसाद) को सन् 1925 ई. में सम्राट पंचम के जन्मोत्सव पर ‘रायसाहब’ की उपाधि से सम्मानित किया गया। (बिहार और हिन्दी साहित्य, तृतीय खंड, पृष्ठ 408) दरभंगा जिले के ही ‘हासा’ (समस्तीपुर) ग्राम के वासी रामशरण उपाध्याय (जन्म: 1 जनवरी 1891 ई.) को 1936 ई. में तत्कालीन सरकार द्वारा ‘रायसाहब’ की उपाधि से विभूषित किया गया था तथा ‘काॅरोनेशन-मेडल’ प्रदान किया गया था। (हिंदी साहित्य और बिहार, तृतीय खंड, पृष्ठ 506) आपने लिखा था-‘‘सम्राट पंचम जाॅर्ज के शासन-काल से बिहार-प्रान्त का बहुत ही गहरा सम्बन्ध है। बिहार का भूतकाल गौरवपूर्ण है। किसी समय में सारे भारतवर्ष के शासन का केन्द्र होने का श्रेय इसे प्राप्त था। किन्तु समय-चक्र के फेर से अंगरेजी शासन में आने के समय यह अपने पड़ोसी बंगाल प्रान्त के अन्तर्गत मान लिया गया था। फल यह हुआ कि लगभग डेढ़ सौ वर्षों तक इसके अस्तित्व का पता भी सुदूर देशों में बहुत कम लोगों को रह गया था। सन् 1911 ई. के 12 दिसम्बर को जब सम्राट पंचम जाॅर्ज ने सम्राज्ञी मेरी के साथ दिल्ली में विशेष दरबार कर अपनी भारतीय प्रजाओं के प्रति अपूर्व प्रेम का परिचय दिया, उन्होंने देश की भलाई के लिए कुछ महत्त्वपूर्ण घोषणाएं कीं। उनमें एक के द्वारा बिहार को पुनः भारतवर्ष के अन्य प्रान्तों के मध्य स्वकीय शासन के द्वारा समकक्ष स्थान प्राप्त करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। उस समय बिहारियों के हृदय में कितना उत्साह तथा आनन्द हुआ, इसका वर्णन करना कठिन है। इतना ही नहीं, सम्राट ने उस समय की भारत-यात्रा में बिहार के कतिपय स्थानों में भ्रमण किया। बिहारवासी उस समय अपने श्रद्धेय सम्राट के दर्शनों से कृतार्थ हुए।’’ (जयन्ती स्मारक ग्रन्थ, पृष्ठ 713; हिंदी साहित्य और बिहार, तृतीय खंड, पृष्ठ 506)

 

 

मई, 1935 में जब सम्राट पंचम जार्ज की रजत जयन्ती मनाई गई थी, रामलोचनशरण बिहारी ने न केवल बहुत उत्साह के साथ उसमें योग दिया था बल्कि ‘बालक’ का भव्य ‘रजत जयन्ती अंक’ निकाला था। कहने की आवश्यकता नहीं कि अपनी साज-सज्जा में यह जनवरी, 1935 के अपने ‘भारतेन्दु अंक’ से भी बीस था। सम्राट पंचम जार्ज की रजत जयन्ती के अवसर पर सहयोग देने के कारण तत्कालीन सरकार ने आपको ‘जुबिली-मेडल’ प्रदान किया। सम्राट अष्टम एडवर्ड और षष्ठ जार्ज के अभिषेकोत्सव में भी आपने उसी उत्साह से सेवा की थी। उस अवसर पर भी ‘बालक’ के द्वारा आपने राज्याभिषेक-महोत्सवों का सचित्र विवरण हिन्दी-संसार के सामने उपस्थित किया था। सम्राट पंचम जार्ज के स्वर्गारोहण के समय भी आपका शोक-प्रकाश ‘बालक’ के विशेषांक में प्रकट हुआ था। सन् 1936 ई. में सम्राट षष्ठ जार्ज के राजतिलक के उपलक्ष्य में रामलोचनशरण बिहारी को ‘काॅरोनेशन-मेडल’ प्राप्त हुआ। (हिन्दी साहित्य और बिहार, तृतीय खंड, पृष्ठ 502) सन् 1941 ई. के जून में रामलोचन शरण ‘बिहारी’ भी ‘रायसाहब’ की उपाधि से विभूषित किये गये।

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