◆ एडवोकेट आकिल इमाम खान
हाल में ही हल्द्वानी में रेलवे की जमीन का अतिक्रमण मामले में शीर्ष न्यायलय की तरफ से संवेदनशीलता और उदारता दिखाते हुए अंतिम राहत दिया जाना स्वागतयोग्य है। यही कारण है की आज भी न्यायालय लोगो की अंतिम उम्मीद बनी हुई है। ये कहने की जरूरत नही है कि इतने बड़ी आबादी को इस कड़ाके के ठंड में जबरन हटाना भारत जैसे लोककल्याणकारी राज्य की और मानवीयता को सबसे ऊपर रखने की हमारे नीति और विचारों को धक्का लगता। अब सवाल उठता है, कि क्या ये अतिक्रमण कुछ महीनों या सालो में तो हुआ नही होगा, जाहिर है, सालो से ये अतिक्रमण का सिलसिला चलता रहा होगा, फिर भी कमाल है कि रेलवे के अधिकारियों, स्थानीय साशन प्रशासन, नगरिक समाज तमाशबीन बना रहता है, या इनका मौन समर्थन रहता है, इस मामले को देखे तो खुद रेलवे गम्भीर नही रहा है, चूँकि रेलवे अब निजीकरण के तरफ बढ़ रही है, तो अपनी अतिक्रमित संपत्ति या भूमि को लेकर सजग हुई है।
सिर्फ हल्द्वानी ही नही रेलवे और सार्वजनिक सम्पत्ति का अतिक्रमण देश मे एक बड़ी समस्या है। हमेशा ये चुनौती बनी रहती है कि अवैध कब्जा या अतिक्रमण आसानी से कैसे मुक्त कराया जाए। जब राज्य सरकारें या स्थानीय प्रशासन दबाव बनाती है यहाँ तक कभी कभी तौड़ फोड़ कर भी अतिक्रमण मुक्त कराने की कोशिस शुरू करती है, तब आनन फानन में अदालत है, तब इलेक्ट्रॉनिक और प्रिन्ट मीडिया में ये खबर सुर्खियां बनती है। पूरे देश की नजर जाती है.. अव्वल ये होना चाहिए कि पहले तो इस तरह का अतिक्रमण हो ही नही पाए इसके लिए मुस्तैद रहा जाएं, अगर ऐसा हो भी जाता है, तो संबंधित विभाग, राज्य सरकारें, से मिलकर अवैध रूप से बसी आबादी का विस्थापन व पुनर्वास में मानवीय दृष्टिकोण रखते हुए कानून सम्मत तरीके से पर्याप्त समय में किया जाना जाना चाहिए। ऐसा भी नही होना चाहिए कि इंसानियत को ताक पर रख कर एक झटके में उन्हें उखाड़ फेंका जाए कम से कम एक प्रजातांत्रिक कल्याणकारी राज्य में इस अमानवीय असंवेदनशील तरीके को उचित नही ठहराया जा सकता है। सुप्रीम कोर्ट ने ठीक ही कहा है कि इतने लोगो को रातो रात उजाड़ा नही जा सकता, इनके लिए व्यवहारिक व्यवस्था होना चाहिए। व्यवहारिक वयवस्था क्या हो, ये समय, स्थान, परिस्थिति, सभी का हित, कम से कम नुकसान की नीति, विधिवत क्रियान्वयन की परिक्रिया में संतुलन तय कर न्याय सुनिश्चित किया जाता है।
(लेखक पटना उच्च न्यायालय में वकील हैं)

