अभी कुछ ही दशकों पहले की कोई सुबह या शाम याद करिए जब घर में चूल्हे पर भात चढ़ता था और उसकी खुशबू से घर-आंगन ही नहीं, आस-पड़ोस भी महक उठता था। भात अगर नए, मोटे, उसना चावल का हो तो उसका सबसे बड़ा आकर्षण होता था उससे निकलने वाले माड़ की आदिम गंध। भात पक जाने के बाद तसले से माड़ निकलते देखना हमारे लिए दिन के कुछ सबसे प्रिय दृश्यों में एक हुआ करता था। सर्दी के दिनों में चूल्हा अलाव का सुख अलग से देता था। हम बच्चे चूल्हे के आसपास आग सेंकते हुए ज़रा से भात के साथ गर्म, गाढ़े माड़ के अपने हिस्से की प्रतीक्षा करते थे। एक कटोरा माड़-भात में एक चुटकी नमक डाल कर उसे चाय की तरह सुड़कने का आनंद आज तक नहीं भूला है। उसमें चूल्हे पर चढ़ी अधपकी दाल का कलछुल भर पानी भी मिला दें तो उसके स्वाद का सानी नहीं। आज की पीढ़ी को विश्वास नहीं होगा कि चूल्हे पर चढ़े भात और माड़ की खुशबू का क्या नशा हुआ करता था। रासायनिक उर्वरकों ने अनाजों के मामले में हमें आत्मनिर्भर और किचन के आधुनिकीकरण ने घर की रसोई को सुविधाजनक ज़रूर बना दिया है, लेकिन भोजन के जादुई लम्हे हमसे छीन लिए है। गैस के चूल्हे पर कूकर में एक सीटी मारो और भात बनकर तैयार। माड़ का कहीं अता-पता नहीं। और भात का स्वाद भी अब कितना बचा है ?भोजन का वह सुख अब बस यादों में ही रह गया है- मां के साये ,भात की खुशबू वाली शाम / दादी की परियों की कहानी याद आई !

