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राजनीति

कांग्रेस की असल परीक्षा बाकी

मेराज नूरी
कांग्रेस पार्टी ने आज कर्नाटक में सत्ता हासिल कर ली है। विधानसभा चुनाव में प्रचंड जीत के बाद पूर्व मुख्यमंत्री सिद्धारमैया ही फिर से मुख्यमंत्री बनाए गए हैं। हालांकि मुख्यमंत्री का ताज डीके शिवकुमार के सर बंधना था लेकिन क्योंकि वह इन दिनों ईडी और सीबीआई के रडार पर हैं और भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरे हैं इसलिए कांग्रेस ने कोई जोखिम उठाना मुनासिब नहीं समझा। जाहिर है एक ऐसे वक्त में जब पिछले 9 साल से तथाकथित तौर पर कांग्रेस को भ्रष्टाचार के मामले में ही घेरने की कोशिश की जा रही हो और सत्ताधारी पार्टी भारतीय जनता पार्टी कांग्रेस के कथित भ्रष्टाचार के पीछे खुद को छुपा कर शासन के मजे ले रही हो ऐसे में कांग्रेस का यह कदम कोई आश्चर्यजनक नहीं कहा जा सकता। क्योंकि अगर कांग्रेस ने कर्नाटक में डीके शिवकुमार को सत्ता सौंपी होती तो आज माहौल दूसरा होता और भारतीय जनता पार्टी डीके शिवकुमार के भ्रष्टाचार के आरोपों के सहारे देशव्यापी तौर पर कांग्रेस को कटघरे में खड़ी करती हुई दिखाई देती। ऐसे में कांग्रेस आलाकमान का सिद्धारमैया को मुख्यमंत्री बनाने का फैसला सही कहा जा सकता है।

इसके साथ ही कांग्रेस पार्टी की नई नवेली सरकार ने विधानसभा चुनाव प्रचार के दौरान किए गए अपने पांच महत्वपूर्ण वादों पर मंत्रिमंडल की पहली मीटिंग में ही मोहर लगाकर न सिर्फ यह कि भारतीय जनता पार्टी की बोलती बंद कर दी है बल्कि यह साबित करने की कोशिश की है कि कांग्रेस अपने वादे की पक्की है और कर्नाटक की जनता के लिए किया गया वादा पूरा करने में तनिक भी देर नहीं लगाती। अपने चुनावी वादे को धरातल पर लाने के फैसले यकीनन कांग्रेस के लिए संजीवनी बूटी का काम करेंगे। ऐसा इसलिए भी क्योंकि मौजूदा समय में पार्टियों के घोषणा पत्र और वादों पर मुल्क की ज्यादातर जनता ने विश्वास करना छोड़ दिया है। देश के एक बड़े तबके को अब लगने लगा है कि ज्यादातर पार्टियां चुनाव के दौरान लोगों को सब्जबाग दिखाती हैं और चुनाव में जीत जाने के बाद उसे जुमला करार देकर अपना पल्ला झाड़ लेती हैं। ठगा जाता है तो वह वोटर जो पार्टियों के बरगलाने में आ जाता है और चुनावी घोषणा के पूर्ण होने की ख्वाहिश लिए हुए उसके इंतजार में होता है। कर्नाटक की कांग्रेस सरकार ने अपनी पहली कैबिनेट बैठक में चुनाव में किए गए वादों को अमलीजामा पहनाकर एक तरह से जनता में यह संदेश देने की कोशिश की है कि अंततोगत्वा कांग्रेस ही जनता के लिए वरदान और फायदेमंद साबित हो सकती है।

कुल मिलाकर कांग्रेस की कर्नाटक की नई नवेली सरकार के फैसले से देश में एक अच्छा संदेश गया है लेकिन कांग्रेस की अग्निपरीक्षा अभी बाकी है। वह इसलिए क्योंकि आने वाले 2024 के लोकसभा चुनाव से पहले कांग्रेस शासित राजस्थान में भी विधानसभा चुनाव होने हैं। जैसा कि कांग्रेस ने कर्नाटक में अपने चुनावी घोषणा में वादे किए थे और उसको पूरा किया है ऐसे में अब कांग्रेस पर यह दबाव भी बढ़ गया है कि वह पहले से सत्ता संभाल रही राजस्थान में कर्नाटक का मॉडल कब से लागू करती है। क्योंकि कर्नाटक की जनता ने कांग्रेस के वादे पर विश्वास करके उसे जीत तो दिला दी लेकिन राजस्थान की जनता वादों पर नहीं गहलोत सरकार के पिछले 5 सालों के कार्यकलाप को परखने के बाद ही वोट करेगी। जाहिर है जब आप सत्ता में होते हैं तो स्थितियां अलग होती हैं और जब आप विपक्ष में होते हैं तो परिस्थितियां अलग होती है। ऐसी सूरत में क्या कांग्रेस राजस्थान में जनहित के उन मुद्दों पर काम करेगी जो कांग्रेस पार्टी को कर्नाटक में दिखाई पड़ी। अर्थात जनता के मुद्दे। ऐसा इसलिए कि राजस्थान में कांग्रेस के पास जनता से वादे करने का कोई विकल्प नहीं है क्योंकि वह पिछले 5 सालों से सत्ता में है। और अगर सत्ता में होने के बावजूद किसी सरकार को अपनी जनता का मन टटोलने में नाकामी हाथ लगे तो फिर उस सरकार को विदा होने में कोई देर नहीं लगती। अब यह कांग्रेस को तय करना है कि वह कांग्रेस शासित राज्यों में जनहित के किन किन मुद्दों पर जनता को राहत देने के लिए क्या क्या कदम उठाती है। क्योंकि केंद्र की भारतीय जनता पार्टी की सरकार पर आरोप लगता है कि वह न सिर्फ केंद्रीय स्तर पर बल्कि जिन जिन राज्यों में भारतीय जनता पार्टी की सरकार है वहां जनहित के मुद्दे गौण हैं और सांप्रदायिक राजनीति के सहारे राज किया जा रहा है।

ऐसे में आने वाले लोकसभा चुनाव के मद्देनजर कांग्रेस पार्टी अगर अपने शासित प्रदेशों में कर्नाटक की तरह ही जनहित के मुद्दे पर प्रखर होकर बात करती है और जनहित के विकास के लिए काम करती है तभी यह माना जाएगा कि कॉन्ग्रेस अपने अतीत से सीख लेने में कामयाब हुई है वरना कर्नाटक में मिली जीत और खुशी ज्यादा दिनों तक बरकरार नहीं रह सकती क्योंकि अगर जनता को यह लगने लगेगा कि चुनावी मोड में ही कांग्रेस जनहित के मुद्दे पर बात और काम करती है जबकि शासन के बाद उसका वही रवैया होता है जो भारतीय जनता पार्टी की केंद्र और राज्य सरकारों का तो फिर जनता को किसी को गद्दी से हटाने में देर नहीं लगती है।

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