बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की कई पहचान है। एक समय था जब उन्होंने लालू प्रसाद यादव को अपना बड़ा भाई कहा और जंगलराज बनाम सुशासन के मुद्दे पर आरजेडी की सरकार को उखाड़ फेंका। उस समय उन्होंने बीजेपी का समर्थन लिया, लेकिन उनकी राजनीति में यह सहयोग हमेशा स्थिर नहीं रहा। नीतीश ने कई बार पार्टी बदली, जिससे यह अनुमान लगाना मुश्किल हो गया कि कब उनका रुख बदल जाएगा। हाल ही में, आरजेडी के साथ मिलकर सरकार बनाने के बाद, उन्होंने फिर से बीजेपी का दामन थाम लिया और नौवीं बार जेडीयू-बीजेपी के साझा मुख्यमंत्री के तौर पर शपथ ली।
मुख्यमंत्री बनने के बाद, नीतीश कुमार लगातार बीजेपी के एजेंडे को आगे बढ़ाते नजर आ रहे हैं। हाल ही में अयोध्या से सीतामढ़ी को जोड़ने वाले राजमार्ग का मुद्दा उठाया गया है। दिलचस्प है कि जब उन्होंने पहली बार केंद्र में बीजेपी सरकार का समर्थन किया था, तब कॉमन मिनिमम एजेंडे को आधार बनाया गया था, जिसमें मंदिर और धारा 370 जैसे मुद्दे शामिल नहीं थे। अब जब मंदिर का निर्माण हो चुका है और धारा 370 का मुद्दा पिछली बात लगने लगा है, तो यह सवाल उठता है कि नीतीश कुमार भगवा रंग में क्यों रंग रहे हैं।
नीतीश कुमार के बदले सुर के पीछे उनकी गहरी राजनीतिक सोच मानी जा रही है। वे इस प्रयोग के माध्यम से एक लिटमस टेस्ट कर रहे हैं, और कुछ विश्लेषक इसे उनकी आखिरी चाल भी मान रहे हैं। लेकिन बिहार की राजनीति को हल्के में लेना किसी भी दाव पर खतरा हो सकता है। नीतीश कुमार ने करीब ढाई दशक से बिहार की सत्ता पर काबिज होकर कई चुनाव देखे हैं और समझ लिया है कि अकेले चुनावी मैदान में उतरने पर सत्ता हासिल करना उनके लिए कठिन है। महादलित और अतिपिछड़ों का उनका वोट बैंक अब पर्याप्त नहीं है, और शराबबंदी तथा साइकिल योजना की असफलता ने उनकी स्थिति को और कमजोर किया है।
उन्हें सवर्ण जातियों और पिछड़े वर्गों का समर्थन चाहिए, जो वर्तमान में बीजेपी के साथ हैं। यदि वे बीजेपी के साथ रहते हैं, तो राज्य के ऐसे मतदाता जो उनके प्रति नकारात्मक हैं, भी उन्हें स्वीकार कर सकते हैं। दूसरी ओर, आरजेडी का मजबूत वोट बैंक भी है, जिसमें सवर्ण और बीजेपी समर्थक पिछड़े शामिल नहीं हैं। आरजेडी नेता तेजस्वी यादव ने एटूजेड राजनीति की ओर कदम बढ़ाने का संकेत दिया है, लेकिन यह स्पष्ट नहीं है कि वे सवर्ण मतदाताओं को अपने साथ ला पाएंगे या नहीं।
नीतीश कुमार का लक्ष्य बीजेपी के एजेंडे को लेकर राज्य में ध्रुवीकरण की स्थिति बनाना है, जिससे उनके उम्मीदवारों को लाभ मिल सके। यदि उपचुनावों में उन्हें सफलता मिलती है, तो अगले आम चुनाव में भी वे इसी तेवर के साथ उतरेंगे।
बीजेपी की भी मजबूरी है कि वह आरजेडी या जेडीयू के वोट बैंक में प्रवेश नहीं कर पा रही है, इसलिए उसे नीतीश कुमार को स्वीकार करना पड़ रहा है। अगर नीतीश आगामी चुनाव में अच्छी सीटें जीतते हैं, तो उनकी पार्टी को तोड़ना मुश्किल होगा और बीजेपी को उन्हें सम्मान देना पड़ेगा। कुछ विश्लेषक मानते हैं कि ऐसी स्थिति में नीतीश सम्मानजनक तरीके से राजनीति से विदा ले सकते हैं।
वरिष्ठ पत्रकार संजय मिश्रा का मानना है कि नीतीश कुमार अभी भी बिहार के सबसे बड़े नेता हैं, लेकिन उनका वोट बैंक तेजस्वी यादव से बड़ा नहीं है। अकेले सियासत में शीर्ष पर रहना उनके लिए संभव नहीं है। बीजेपी के साथ रहकर वे अगड़ी जातियों की नाराजगी को संतुलित कर सकते हैं। उन्होंने यह भी देखा है कि राष्ट्रीय राजनीति में उनके अवसर अब समाप्त हो चुके हैं। आगामी चुनाव उनके लिए अंतिम पारी हो सकती है, और बीजेपी के साथ रहने से उनकी पलटूराम की छवि भी समाप्त हो सकती है। फिलहाल, नीतीश कुमार की वर्तमान रणनीति उनके लिए फायदेमंद साबित हो सकती है।

