PATNA:बिहार में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की पार्टी, जनता दल यूनाइटेड (जेडीयू), ने सांगठनिक स्तर पर दो अहम नियुक्तियां की हैं। गुलाम रसूल बलियावी को पार्टी का महासचिव बनाया गया है, वहीं जेडीयू के नेता हर्षवर्धन सिंह को भी राष्ट्रीय महासचिव की जिम्मेदारी दी गई है। यह नियुक्तियां विशेष रूप से नीतीश कुमार के निर्देश पर की गईं हैं। हर्षवर्धन सिंह, जो पहले भी पार्टी में महत्वपूर्ण पदों पर रहे हैं, उन्हें पार्टी में कई अहम जिम्मेदारियां दी गई थीं। वे राजपूत समुदाय के प्रभावशाली नेता माने जाते हैं और चार साल पहले आरजेडी से जेडीयू में शामिल हुए थे, जब उन्हें तत्कालीन जेडीयू अध्यक्ष ललन सिंह ने पार्टी में शामिल कराया था।
नीतीश कुमार का संगठनीय बदलाव: रणनीतिक मंशा
इन नियुक्तियों को लेकर सवाल उठ रहे हैं कि नीतीश कुमार ने अचानक पार्टी संगठन में यह बदलाव क्यों किया। जेडीयू के मुस्लिम समुदाय के नेताओं के साथ खींचतान और वक्फ बोर्ड को लेकर नीतीश कुमार और ललन सिंह के विवादों के बीच, गुलाम रसूल बलियावी को महासचिव बनाने का कदम एक राजनीतिक संदेश है। खासतौर पर, जदयू के नेताओं के बयान कि “जेडीयू को मुसलमान वोट नहीं करते” के बाद, बलियावी को प्रमोशन देकर नीतीश कुमार ने यह संदेश देने की कोशिश की कि वे सभी समुदायों को साथ लेकर चलने वाले नेता हैं। वहीं, हर्षवर्धन सिंह की राष्ट्रीय महासचिव के तौर पर नियुक्ति का संबंध बिहार की जातीय राजनीति से जुड़ता है। बिहार में राजपूत समुदाय का काफी प्रभाव है, खासकर शाहाबाद और बक्सर जैसे क्षेत्रों में। इन क्षेत्रों में राजपूत समुदाय के समर्थन के बिना चुनावी समीकरण को साधना मुश्किल हो सकता है। हाल ही में रामगढ़ में बीजेपी के अशोक कुमार सिंह ने राजद के अजीत सिंह को हराया, जो राजपूत समुदाय से आते हैं। इस संदर्भ में, हर्षवर्धन सिंह की नियुक्ति राजनीतिक दृष्टि से महत्वपूर्ण मानी जा रही है, क्योंकि इससे जेडीयू को राजपूत समुदाय के वोटों का समर्थन मिलने की संभावना बढ़ेगी।
नीतीश कुमार का राजपूत कार्ड
बिहार में नीतीश कुमार के लिए राजपूत समुदाय को अपनी ओर खींचना जरूरी है, क्योंकि यह समुदाय राज्य के चुनावी समीकरण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। नीतीश कुमार ने पहले भी कई बार राजपूत वोटों को आकर्षित करने के लिए कदम उठाए हैं, जैसे 2015 और 2020 के विधानसभा चुनावों में। हाल ही में, 2024 के लोकसभा चुनाव से पहले नीतीश कुमार ने पूर्व सांसद आनंद मोहन को रिहा किया, जो दलित समुदाय के डीएम जीएम कृष्णैया कांड में दोषी पाए गए थे। उनके रिहा होने के बाद नीतीश कुमार ने राजपूत वोटों को अपने पक्ष में करने की कोशिश की थी।इसके अलावा, नीतीश कुमार ने राज्यसभा के उपाध्यक्ष के रूप में हरिवंश नारायण सिंह को नियुक्त किया, जो राजपूत समुदाय से आते हैं। यह कदम भी उनकी रणनीति का हिस्सा था, जिससे उन्होंने राजपूत समुदाय को अपने पक्ष में लाने की कोशिश की।
जातीय राजनीति का प्रभाव
बिहार में जातीय राजनीति का प्रभाव हमेशा से महत्वपूर्ण रहा है। बिहार की सियासत में प्रमुख जातियों, जैसे यादव, कुशवाहा, राजपूत, भूमिहार, कुर्मी और ब्राह्मण का बड़ा असर है। इन जातियों की गोलबंदी चुनावी परिणामों पर सीधा असर डालती है। उदाहरण के लिए, यादव समुदाय का झुकाव पारंपरिक रूप से आरजेडी के पक्ष में रहता है, जबकि कुशवाहा समुदाय को अक्सर नीतीश कुमार का समर्थन मिलता है। हालांकि, पिछले कुछ चुनावों में कुशवाहा समुदाय का समर्थन कुछ कम हुआ है, फिर भी नीतीश कुमार ओबीसी समुदाय के छोटे-छोटे हिस्सों को एकजुट कर अपनी स्थिति मजबूत करना चाहते हैं। राजद के यादव और मुस्लिम गठजोड़ के बाद, नीतीश कुमार का फोकस अब अन्य जातियों को अपने साथ लाने पर है, ताकि उनका सियासी वर्चस्व कायम रहे।
2025 के विधानसभा चुनाव की तैयारियां
जेडीयू और एनडीए के लिए आगामी विधानसभा चुनाव 2025 चुनौतीपूर्ण हो सकते हैं, खासकर जब आरजेडी और इसके सहयोगियों का यादव-मुस्लिम गठजोड़ मजबूत हो। नीतीश कुमार के लिए यह जरूरी होगा कि वे बिहार के अन्य महत्वपूर्ण समुदायों का समर्थन प्राप्त करें, जैसे राजपूत (3.45%), कुर्मी (2.87%), भूमिहार (2.86%), और अन्य पिछड़ी जातियां (ईबीसी और दलित)। इन जातियों के समर्थन से वे चुनावी समीकरण को अपनी ओर मोड़ सकते हैं।
नीतीश कुमार की ये नियुक्तियां और राजनीतिक रणनीतियाँ बिहार के आगामी चुनावों में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती हैं। हर्षवर्धन सिंह और गुलाम रसूल बलियावी जैसे नेताओं को पार्टी में प्रमुख पदों पर बैठाकर, नीतीश कुमार ने एक बार फिर यह साबित किया है कि वे जातीय समीकरण को ध्यान में रखते हुए अपनी राजनीतिक चाल चल रहे हैं। 2025 के विधानसभा चुनाव से पहले ये कदम बिहार के चुनावी परिदृश्य को प्रभावित कर सकते हैं।