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क्या लालू यादव के लिए फिर से लामबंद हो रहे हैं दलित पिछड़े!

30–32 साल पहले जब लालू प्रसाद यादव ने सत्ता संभाली तो हिंदी पट्टी विशेषकर बिहार के पिछड़ों,दलितों को वो मिला जिसकी न तो उन लोगों ने कल्पना की थी और न ही इस व्यवस्था में इसकी कल्पना की जा सकती थी।समाज के पारंपरिक ताने बाने में जकड़े दलितों और पिछड़ों को उन्होंने जो जुबान और हौसला दिया वो दलितों पिछड़ों के लिए किसी संजीवनी से कम नहीं था।आज भी जब आप दलितों पिछड़ों के प्रौढ़ लोगों से बात करेंगे तो वो आपको अपनी पुरानी व्यथा के साथ इस बात को बखूबी बताएंगे कि उनके सामाजिक जीवन में बदलाव लाने में लालू प्रसाद यादव ने क्या भूमिका निभाई।जाहिर है दलितों पिछड़ों के बल पर ही लालू यादव ने 15 वर्षों तक न सिर्फ हुकूमत की बल्कि उत्तर भारत विशेषकर बिहार में पिछड़ों के एक मजबूत नेता बन कर उभरे और आज भी है।

 

राजनितिक विश्लेषकों का मानना है कि दूसरी और पिछड़ों और दलितों के सामाजिक उत्थान का ही नतीजा रहा कि उसमें भी सत्ता और भागीदारी का जज्बा पैदा हुआ और उसने अपने अधिकार के लिए सोचना शुरू किया जिसके फलस्वरूप पिछले 10_20 वर्षों में पिछड़ों दलितों ने सत्ता परिवर्तन में अहम किरदार अदा किया।

ये लालू यादव की ही देन कही जा सकती है कि नीतीश कुमार को भी सत्ता मिली वरना लालू यादव के राज से पहले बिहार में सत्ता का निर्धारण कुछ जाति और लोगों के द्वारा बनाए परसेप्शन से होता था।एक परसेप्शन गढ़ दिया जाता था और बिहार का दलित पिछड़ा समाज उसके पीछे चल पड़ता था। जबकि आज स्थिति ये है कि राजनीतिक पार्टियों को इन्ही पिछड़ा दलित के हिसाब से चाल चलनी पड़ती है।समीकरण बनाने पड़ते हैं।प्रत्याशियों का चुनाव करना पड़ता है।

 

राजनितिक विश्लेषकों का ये भी मानना है कि इन 30–35 सालों में कई राजनीतिक उतार चढाव आए लेकिन लालू प्रसाद यादव के लिए बिहार का दलित पिछड़ा आज भी उनके साथ मजबूती से खड़ा दिखाई पड़ता है।ये बात अलग है कि चुनाव के वक्त बनने वाले कुछ हवा हवाई,भावना में डूबी, जाति,धर्म,संप्रदाय और जुगलबंदी की राजनीति में दलित पिछड़े बहे हैं और उसने ऐसे फैसले लिए जिसकी वजह से खुद इनकी राजनीतिक हैसियत को बट्टा लगा है।जिसका नतीजा हुआ कि हाल के 15–20 वर्षों में दलितों और पिछड़ों का वोट बिखड़कर अलग अलग पार्टियों में बंट गया।नतीजे के तौर पर इन बिरादिरियों को पूछने वाला नहीं रहा।

 

अब जबकि लोकसभा चुनाव 2024 का तीन चरण हो चुका है और मीडिया रिपोर्ट्स में जो रुझान सामने आ रहे हैं उसके अनुसार दलित और पिछड़ों का एक बड़ा तबका लालू यादव के लिए लामबंद होता हुआ दिखाई दे रहा है।

 

 

बताते चलें कि अतिपिछड़ा और पिछड़ों की राजनीति में व्यस्त बिहार के तमाम दलों की नजर दलित मतों की ओर भी है। 20 प्रतिशत की राजनीति चुनावी परिणाम में निर्णायक होते दिख भी रही है। मगर, दलित मतों को अपनी ओर करने की होड़ में गठबंधन दल के दलित नेताओं का लिटमस टेस्ट वर्ष 2024 के लोकसभा चुनाव में होने जा रहा है। एनडीए हो या इंडिया गठबंधन अपने-अपने दलित नेताओं के चेहरे चमकाने में लगे हैं। गठबंधन की राजनीति में शामिल दलों के पास कद्दावर दलित नेताओं की फौज है। अगर, नामचीन दलित नेताओं की बात करें तो एनडीए और महागठबंधन में ऐसे कई नेता है, जो देश की राजनीतिक फलक पर जाने जाते हैं।

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