मेराज नूरी
गुरुवार को भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जे पी नड्डा बिहार में थे।उन्होंने भाजपा के दिवंगत नेता कैलाशपति मिश्र की 100वीं जयंती पर समारोह को संबोधित किया।मीडिया रिपोर्ट के अनुसार जे पी नड्डा की उपस्थिति में ही स्वर्ण भाजपा नेता और पूर्व केंद्रीय मंत्री राजीव प्रताप रूड़ी ने भाजपा पर सिद्धांतों से भटकाव का बड़ा आरोप जड़ दिया।रूड़ी ने अपनी ही पार्टी की कार्यशैली पर सवाल उठाते हुए कहा कि भाजपा के कैलाशपति मिश्र के सिद्धांतों से भटकने का ही परिणाम है कि आज बिहार में भाजपा की सरकार नहीं है।उन्होंने यह सब पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा की मौजूदगी में कहकर एक बार सबका ध्यान अपनी ओर खींच लिया।सिद्धांतों की बात उन्होंने कैलाशपति मिश्र से जोड़ी लेकिन हकीकत ये है कि राजीव प्रताप रूडी बिहार भाजपा में स्वर्णों को नज़र अंदाज़ करने की वजह से हो रही पीड़ा को बयान कर रहे थे।वो पीड़ा जो दशकों तक सत्ता या उसके आसपास रहने वाली जातियों के दरकिनार किए जाने की है।ऐसा इसलिए क्योंकि हालिया दिनों में ये देखने को मिल रहा है। राजीव प्रताप रूडी इससे पहले भी अपनी पीड़ा बयान कर चुके हैं। मीडिया रिपोर्ट के मुताबिक इसी वर्ष फरवरी में भी राजीव प्रताप रुड़ी ने इसी तरह की एक टिप्पणी की थी।तब फरवरी 2023 में दरभंगा में अपना दर्द बयां करते हुए उन्होंने संकेत दिया था कि वे पार्टी में पूरी तरह अलग थलग हो चुके हैं। दरंभगा में आयोजित ‘दृष्टि बिहार एजेंडा 2025’ के कार्यक्रम को संबोधित करते हुए राजीव प्रताप रूडी ने अपनी निराशा को प्रकट किया था।उन्होंने कहा था कि 28 और 29 जनवरी 2023 को भाजपा कार्यसमिति की बैठक थी।भाजपा कार्यकर्ता होने के नाते वो भी उस कार्यक्रम में पहुंचे थे लेकिन उन्हें मंच पर भी नहीं बुलाया गया।वे दर्शक दीर्घा में बैठे रहे और सभी नेताओं का भाषण सुनकर चले गये।
दरअसल हमेशा से बिहार की राजनीति में जातिवाद का प्रभुत्व रहा है।आजादी के बाद के ज्यादातर मुख्यमंत्री अगड़ी जातियों के रहे।कार्यकाल की अवधि जो भी रही हो लेकिन संख्या अगड़ी जातियों की रही जिस ने बिहार पर शासन किया।बिहार की राजनीति यही कोई तीन दशक से गैर सवर्ण जातियों के इर्द-गिर्द घूमती आई है।ख़ास तौर पर इन दिनों में पिछड़ा वर्ग का प्रभुत्व इतना बढ़ा कि इस तबके से आने वाले लालू यादव-राबड़ी देवी-नीतीश कुमार ही मुख्यमंत्री होते आए हैं हालांकि एक दौर वह भी रहा है, जब मुख्यमंत्री अगड़ी जातियों के ही होते थे।इसके कारण भी थे।वो ये कि उस समय तक बिहार में अगड़ी जातियों की आबादी 15 से 20 प्रतिशत के बीच हुआ करती थी या फिर एक मिथ्या गढ़ दिया गया था कि स्वर्ण ही सत्ता बनाने बिगाड़ने की पोजिशन में हैं।एक वक़्त यह कांग्रेस का वोट बैंक हुआ करती थी,जगन्नाथ मिश्र के मुख्यमंत्री काल तक ये साथ बना रहा लेकिन नब्बे के दशक में जब बिहार की राजनीति में लालू युग शुरू हुआ तब से स्वर्ण भाजपा के साथ आ गए।ऐसा इसलिए हुआ कि उस समय कहा ये जाने लगा कि लालू यादव ने स्वर्णों को साफ करने की बात की है।दरअसल बिहार में मुख्य रूप से चार बड़ी अगड़ी जातियां हैं- भूमिहार, राजपूत, ब्राह्मण और लाला।राजनीतिक गलियारों में उन्हें सांकेतिक भाषा में ‘भूराबाल’ कहा जाता है। बिल्कुल वैसे ही जैसे मुस्लिम-यादव समीकरण को ‘एमवाई’ कहते हैं। नब्बे के दशक में जब बिहार की राजनीति में लालू युग शुरू हुआ, तो इसको लेकर बड़ा राजनीतिक विवाद खड़ा हुआ था हालांकि लालू यादव इसे अपने ख़िलाफ़ एक बड़ी राजनीतिक साजिश बताते रहे हैं।
कुल मिलाकर एक गढ़े हुए मिथ्या के सहारे हाल के दिनों तक भाजपा को भी लग रहा था कि स्वर्णों और दलित ओबीसी को साध कर बिहार की सत्ता पर काबिज हुआ जा सकता है लेकिन जातीय गणना की सुगबुगाहट के साथ ही भाजपा को ये अंदाजा हो गया कि महज स्वर्णों के सहारे बिहार की राजनीति को साधना मुश्किल है।बस यहीं से शुरू हुआ खेल जिसमें स्वर्णों को दरकिनार करने की शुरुआत होने लगी।
आपको याद होगा कि एक वक्त ऐसा भी आया था जब बिहार में भूमिहारों को दरकिनार करने का भाजपा पर बड़ा आरोप लगा और भूमिहार लॉबी सक्रिय हो गई थी।आनन फानन में एक भूमिहार को पद दिया गया था।किसी तरह मामले को शांत कराया गया।लेकिन बात यहीं तक नहीं रुकी।उसके बाद भाजपा ने अंदर खाने नई बिसात बिछाई और बिहार के अगड़ी जाति के नेताओं को केंद्र के साथ साथ राज्य में भी हाशिए पर धकेला जाने लगा।शत्रुघ्न सिन्हा ने इसकी वजह से ही भाजपा को छोड़ तक दिया।बाद के दिनों में चाहे रविशंकर प्रसाद हों या फिर राजीव प्रताप रूड़ी सभी को दरकिनार कर दिया गया।यहां तक कि दशकों तक भाजपा के बिहार में वन मैन रहने वाले सुशील कुमार मोदी तक को बिहार की राजनीति से अलग थलग कर दिया गया।इन स्वर्णों के विकल्प के तौर पर रेनू देवी, नित्यानंद राय इत्यादि को आगे किया गया।नीतीश के एनडीए से अलग होकर महागठबंधन के साथ आने के बाद तो भाजपा ने और मुखर होकर स्वर्णों को दरकिनार करना शुरू कर दिया।एक तरफ जहां प्रदेश भाजपा की कमान गैर स्वर्ण सम्राट चौधरी को सौंप दी वहीं विधान परिषद में नेता प्रतिपक्ष निचले समाज से आने वाले हरी सहनी को बना डाला।
ऐसे में भाजपा के स्वर्ण नेताओं का मुखर होना इस बात का संकेत है कि बिहार में स्वर्ण समाज खुद को ठगा हुआ महसूस करने लगा है।इसके परिणाम क्या होंगे ये भविष्य के गर्त में है लेकिन एक बात तो तय है कि जातिगत गणना के बाद स्वर्णों की आबादी के जो आंकड़े निकल कर आए हैं उससे भाजपा के साथ साथ स्वर्णों की भी चिंता बढ़ गई है।अब स्वर्णों की चिंता बढ़नी इसलिए भी लाजिमी है क्योंकि लालू नीतीश के समीकरण से अगर राजनीति सटीक तरीके से साध ली गई तो फिर स्वर्ण न इधर के रहेंगे न उधर के।
वैसे भी “भूराबाल”साफ करने के लालू के बयान की सच्चाई जो भी रही हो लेकिन इस विवाद के बाद से लालू यादव की ‘एंटी अपर कास्ट’ नेता के रूप में जो छवि उभरी इसका एक दौर में लालू ने फायदा तो उठा ही लिया है और आज फिर से लालू यादव ने यादव, मुस्लिम और अति पिछड़ा वर्ग-दलित वर्ग की कुछ अन्य जातियों को गोलबंद करना शुरू कर दिया है जिसका परिणाम तेजस्वी यादव के कुर्सी हासिल करने तक जाता हुआ दिखाई पड़ रहा है।