पटना : राष्ट्रीय स्तर पर अपने नेताओं के पार्टी छोड़कर भारतीय जनता पार्टी में शामिल होने से परेशान भारत की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस को बिहार से भी एक के बाद एक झटके लगे हैं। रविवार 31 मार्च को जहां बिहार कांग्रेस के दिग्गज नेताओं में शुमार और बिहार के पूर्व प्रदेश अध्यक्ष अनिल शर्मा ने पार्टी छोड़ दी वही 1 अप्रैल को पार्टी प्रवक्ता असित नाथ तिवारी ने भी कांग्रेस को अलविदा कह दिया है। चुनावी दौड़ में इन नेताओं के पार्टी छोड़ने की वजह चाहे जो भी हो लेकिन नेताओं का पार्टी से मोह भंग होना कांग्रेस के क्रियाकलापों पर प्रश्न चिन्ह जरूर खड़े करता है।
राजनितिक विश्लेषकों का मानना है कि बिहार की सत्ता से बाहर हुई कांग्रेस बाद में संगठन के लिए भी बेसुध-सी हो गई। पिछले एक दशक में उसके चार दिग्गज पार्टी छोड़ चुके हैं, जो एक समय प्रदेश इकाई के दिशा-निर्देशक हुआ करते थे। उनमें से तीन (महबूब अली कैसर, प्रो. रामजतन सिन्हा, डा. अनिल कुमार शर्मा) पूर्व प्रदेश थे और संगठन में उपेक्षा से पीडि़त थे, जबकि चौथे अशोक चौधरी तो तत्कालीन प्रदेश अध्यक्ष ही थे। कैसर, रामजतन और चौधरी के लिए तो नए ठौर पर परिणाम भी सुखद रहा, लेकिन शर्मा को लेकर अभी अनिश्चितता है कि आगे उनकी दिशा-दशा क्या होगी।
आपको याद होगा जब वर्ष 2018 में कांग्रेस के छह में से चार विधान पार्षद जदयू में चले गए थे। तत्कालीन प्रदेश अध्यक्ष अशोक चौधरी उनका नेतृत्व कर रहे थे। उनके अलावा दिलीप चौधरी, रामचन्द्र भारती और तनवीर अख्तर पार्टी छोडऩे वालों में थे। तब अशोक चौधरी ने जो कुछ कहा था, कांग्रेस ने संभवत: उसका संज्ञान नहीं लिया। उन्होंने कहा था कि प्रदेश अध्यक्ष के रूप में उन्होंने 2015 के विधानसभा चुनावों में कांग्रेस को शानदार सफलता दिलाई, लेकिन अपमान ही एकमात्र पुरस्कार है, जो उन्हें मिला। उनसे पहले महबूब अली कैसर, रामजतन सिन्हा और डा. अनिल शर्मा से भी कांग्रेस में खराब व्यवहार होता रहा है। यह संयोग ही है कि एक के बाद एक उन चारों ने कांग्रेस छोड़ दी। उनमें अशोक चौधरी से भी कड़ी-बड़ी बातें अनिल शर्मा पार्टी छोड़ते हुए रविवार को कर गए। उन्होंने तो राजद से गठबंधन को आत्मघाती बताते हुए कहा कि सोनिया गांधी और राहुल गांधी के रहते हुए कांग्रेस का कल्याण नहीं होने वाला। राजेश रंजन उर्फ पप्पू यादव की आवक पार्टी के हित में नहीं, जबकि उनका महिमामंडन हो रहा है।
बताते चलें कि कांग्रेस पर भावनाओं से खिलवाड़ का आरोप लगाते हुए पूर्व मंत्री प्रो. रामजतन सिन्हा जदयू में गए थे। चुनाव लडऩे के अभिलाषा थे और इसी इच्छा से लोजपा तक की राजनीतिक यात्रा किए। महबूब अली कैसर तो खानदानी कांग्रेसी हैं। कांग्रेस छोड़ लोजपा में गए तो खगडिय़ा से सांसदी का सुख मिला। इस बार बेटिकट होकर शांत बैठ गए हैं। इन दोनों की अपेक्षा अशोक चौधरी अधिक सौभाग्यशाली निकले। जदयू में जाने के बाद वे मंत्री बने और अब तक कई विभागों के नेतृत्व का अनुभव प्राप्त कर चुके हैं। इस बार तो उनकी पुत्री शांभवी समस्तीपुर संसदीय क्षेत्र से लोजपा की प्रत्याशी भी हैं।
राष्ट्रीय स्तर के बाद प्रदेश स्तर पर पार्टी नेताओं का पार्टी छोड़ने कांग्रेस के लिए शुभ संकेत तो नहीं लेकिन राजनीतिक पंडितों का मानना है कि कांग्रेस से जाने वाले ज्यादातर लोग कांग्रेस की उपेक्षा से ही यह कदम उठाने को मजबूर होते हैं। कुछ ऐसा ही हाल बिहार के नेताओं का भी रहा जिन्होंने अंतिम समय में पार्टी को अलविदा कहना ही उचित समझा और नए ठिकाने की तरफ बढ़ चले। वह चाहे अशोक चौधरी हो ,महबूब अली कैसर हूं या फिर अनिल शर्मा जैसे लोग इन लोगों ने स्थिति को भांपते हुए ही कांग्रेस को अलविदा कहा है। अब देखने वाली बात यह होगी कि बिहार कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष अनिल शर्मा के जाने के बाद पार्टी की सेहत पर क्या असर पड़ता है और खुद अनिल शर्मा किस राजनीतिक पार्टी का दमन थामते हैं।