बिहार विधानसभा चुनाव 2025 में इस बार जिस मुद्दे की चर्चा हर चुनाव में होती थी, वह लगभग गायब हो गई है — परिवारवाद की राजनीति। नामांकन प्रक्रिया पूरी हो चुकी है और कई दलों ने अपने परिजनों को टिकट भी दिए हैं, फिर भी जनता इस विषय पर उतनी प्रतिक्रिया नहीं दे रही। वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक लव कुमार मिश्रा के अनुसार, “बिहार, उत्तर प्रदेश और झारखंड जैसे राज्यों में परिवारवाद अब मुद्दा नहीं रहा, बल्कि परंपरा बन चुका है। जनता इसे स्वीकार कर चुकी है और नेताओं के परिवार को ही सत्ता की निरंतरता का प्रतीक मानने लगी है।
राजनीति में परिवारवाद पर आलोचना होती है, लेकिन समाज के अन्य पेशों में — जैसे वकील का बेटा वकील बने या डॉक्टर का बेटा डॉक्टर बने — इसे कभी मुद्दा नहीं माना जाता। फर्क यह है कि राजनीति कोई पेशा नहीं बल्कि सेवा है, जिसमें शिक्षा या योग्यता की अनिवार्यता नहीं होती। यही कारण है कि जब कोई नेता अपने परिवार के सदस्य को आगे बढ़ाता है, तो इसे परिवारवाद कहा जाता है।
बिहार की राजनीति में ऐसे कई उदाहरण हैं। लालू प्रसाद यादव ने राबड़ी देवी को मुख्यमंत्री बनाया और बेटों को राजनीति में उतारा। राम विलास पासवान ने अपने बेटे चिराग पासवान को उत्तराधिकारी बनाया, वहीं जीतन राम मांझी ने अपने परिजनों को राजनीतिक जिम्मेदारियां दीं। हालांकि, नीतीश कुमार ने परिवारवाद से दूरी बनाए रखी है। विशेषज्ञों का मानना है कि जनता अब विकास और रोज़गार जैसे ठोस मुद्दों पर ज्यादा ध्यान दे रही है, इसीलिए ‘परिवारवाद’ अब बिहार चुनाव में मुख्य विषय नहीं रहा।

